परिचय
उकसाना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें किसी व्यक्ति को किसी विशिष्ट कार्य को करने के लिए प्रेरित करने या जानबूझकर सहायता करने की दिशा में मानसिक रूप से फुसलाया जाता है। भारतीय दंड संहिता, 1860 (आई.पी.सी.) की धारा 306 आत्महत्या के लिए उकसाने की अवधारणा के बारे में बात करती है। आई.पी.सी. की धारा 306 उस व्यक्ति के लिए सजा का प्रावधान करती है जिसने किसी व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिए उकसाया, उसकी सहायता की या उसे फुसलाया हो। इस धारा के अनुसार ऐसे अपराध के लिए अधिकतम दस वर्ष की सजा या जुर्माना या दोनों हो सकता है।
आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिए, उकसाने का अपराध करने के लिए एक स्पष्ट मेंस रिआ (मकसद) होना चाहिए। आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत अपराध संज्ञेय (कॉग्निजेबल), गैर-जमानती, गैर-शमनीय (नॉन कंपाउंडेबल) और सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय (ट्राईएबल) होता हैं। इस धारा के तहत कई अन्य अवधारणाएँ भी हैं जिनकी व्याख्या न्यायालयों के द्वारा विभिन्न निर्णयों के माध्यम से किया गया है। इस लेख में, हम उन मामलों और उनकी व्याख्या के बारे में बात करेंगे।
आई.पी.सी. की धारा 306 में आत्महत्या के लिए उकसाने की बात कही गई है। आई.पी.सी. की धारा 306 में कहा गया है की “यदि कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है, तो जो कोई भी इस तरह की आत्महत्या में उस व्यक्ति की सहायता करता है और उसे उकसाता है, उसे दस साल से अधिक की अवधि के लिए कारावास की सजा दी जाएगी, और वह जुर्माना के लिए भी उत्तरदायी होगा।”
सती प्रथा को रोकने के लिए भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत धारा 306 को जोड़ा गया था। उन दिनों भारत में सती प्रथा बहुत प्रचलित थी। विधवाओं की पीड़ा उन्हें सती करने के लिए प्रेरित करती थी। इस अधर्म प्रथा को समाप्त करने के लिए फलस्वरूप यह प्रावधान आई.पी.सी. में जोड़ा गया था। यह स्थापित किया गया था कि सास, भाभी और पति द्वारा, पत्नी के साथ किए गए दुर्व्यवहार के परिणामस्वरूप पत्नी ने आत्महत्या की थी।
यह माना गया था कि जो व्यक्ति पीड़ित व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिए उकसाते हैं, उन्हे आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत दोषी ठहराया जाना चाहिए। पर्याप्त दहेज नहीं लाने के कारण आरोपी मृतक के साथ बदसलूकी कर रहा था। रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों के द्वारा लगातार और बेरोकटोक उत्पीड़न और क्रूरता के मामलो को सामने लाया गया था। इसने मृतक को जहरीला पदार्थ खाकर आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर दिया था, और इसलिए आरोपी को धारा 306 और धारा 498 A के तहत दोषी ठहराया गया था।
इस धारा की व्याख्या के अनुसार, आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत आत्महत्या में सहायता करने और उसे उकसाने के लिए किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने (और दंडित) करने के लिए, तीन मुख्य आवश्यकताओं को पूरा किया जाना चाहिए। ये तीन पूर्वापेक्षाएँ (प्रीरिक्विजिट) इस प्रकार हैं:
आत्महत्या का होना
मृतक ने आत्महत्या की होगी, अर्थात उसने अपनी जान खुद ही ली थी (और किसी अन्य व्यक्ति द्वारा हत्या नहीं की गई होनी चाहिए)। इस धारा के तहत आरोपी को दोषी ठहराने के लिए आत्महत्या की जानी चाहिए। आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत आत्महत्या करने का असफल प्रयास दंडनीय नहीं है।
ऐसी आत्महत्या के लिए उकसाना या उत्तेजित (इंस्टीगेट) करना
आरोपी को मृतक को ऐसी आत्महत्या करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए था या उकसाना चाहिए था।
सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा रमेश कुमार बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2001) के मामले में उत्तेजित करने वाले शब्द को स्पष्ट करते हुए कहा गया था कि “उत्तेजना एक प्रदर्शन को प्रोत्साहित करने, आगे बढ़ाने, प्रोत्साहित करने, आह्वान (प्रॉम्प्ट) करने या संकेत देने के लिए होता है।”
विजय कुमार बनाम राजस्थान राज्य (2018) के मामले में, यह निर्धारित किया गया था कि उत्तेजना शब्द का अर्थ “किसी को कुछ करने के लिए राजी करने के लिए सलाह देना या एक अच्छा प्रयास करना और अंत में एक व्यक्ति को और अधिक तेज़ी से आगे बढ़ाना या एक खास तरीके से ऐसा कुछ करना है।” उकसाने को स्थापित करने के लिए, यह प्रदर्शित किया जाना चाहिए कि आरोपी ने मृतक को शब्दों या अपमान के माध्यम से प्रोत्साहित किया है या परेशान करने के लिए ऐसा करना जारी रखा है, जब तक कि मृतक ने उसके संबंध में जवाब न दिया हो। इसके अलावा, आरोपी का इरादा मृतक को उकसाने, अनुरोध करने या ऊपर वर्णित तरीके से कार्य करते हुए उसके जीवन को समाप्त करने का आग्रह करने का था। मेंस रीआ का अस्तित्व निर्विवाद रूप से बहुत ही महत्वपूर्ण है।
एम. मोहन बनाम राज्य पुलिस उपाधीक्षक (सुपरिटेंडेंट) (2011) के मामले में न्यायालय द्वारा यह निर्धारित किया गया था कि उकसाने में उकसावे की मनोवैज्ञानिक बातचीत या जानबूझकर किसी व्यक्ति को कुछ करने में उसकी सहायता करना शामिल है। दोषसिद्धि का समर्थन तब तक नहीं किया जा सकता है जब तक कि व्यक्ति के जीवन को समाप्त करने के लिए प्रोत्साहित करने या उसकी सहायता करने के लिए दोषी की ओर से अनुकूल अनुवर्ती (फेवरेबल) कार्रवाई न हो।
प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) संबंध
उकसाने और आत्महत्या करने के बीच सीधा संबंध होना चाहिए। उदाहरण के लिए, जैसे की अमलेंदु पाल @ झंटू बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2009) के मामले में बताया गया था। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि कथित आत्महत्या के लिए उकसाने के मामलों में, आत्महत्या करने के लिए उकसाने के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष (इनडायरेक्ट) कार्यों का सबूत होना चाहिए। आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत केवल उत्पीड़न के आरोप पर, जो की घटना के समय के आसपास हुआ था और, आरोपी की ओर से किसी भी सकारात्मक कार्रवाई के बिना जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया या मजबूर किया था, के आधार पर दोषसिद्धि पूरी तरह से व्यवहार्य (वाएबल) नहीं है।
किसी कार्य को करने के लिए, किसी अन्य व्यक्ति को उद्देश्यपूर्ण तरीके से फुसलाने या किसी की सहायता करने का मानसिक विकास, उसे उकसाना होता है। आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिए उकसाने का अपराध करने का स्पष्ट मकसद होना चाहिए। एक सीधा कार्य भी होना चाहिए जिससे मृतक को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया जा सके।
सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा एम. मोहन बनाम राज्य पुलिस उपाधीक्षक (2001) के मामले में यह फैसला सुनाया गया था कि कथित व्यक्ति के कार्य और मृत व्यक्ति की आत्महत्या करने के विकल्प के बीच घनिष्ठ (क्लोज़) संबंध होना चाहिए। ऐसे संबंध के अभाव में यह साबित करना मुश्किल हो जाता है कि आरोपी व्यक्ति ने मृत व्यक्ति को आत्महत्या के लिए प्रेरित किया था। जिसके नतीजतन, किसी व्यक्ति द्वारा उकसाने की घटना तब होती है जब आरोपी उस व्यक्ति को उकसाता है या ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देता है जिससे मृतक को आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया जाता है।
मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम (मेंटल हेल्थ केयर एक्ट), 2017 के अधिनियमन (इनैक्टमेंट) के साथ, कई अटकलें (स्पेक्युलेशन) लगाई गई हैं, कि आई.पी.सी. की धारा 309 को विस्मृत (ऑब्लिवियन) करने के लिए मजबूर किया गया है या पहले ही समाप्त या अपराधमुक्त (डिक्रिमिनलाइज) कर दिया गया है। हालाँकि, यह कानून आई.पी.सी. की धारा 309 को निरस्त (रिपील) नहीं करता है, इसके बजाय, यह इसके प्रायोज्यता (एप्लीकेशन) के दायरे को सीमित कर देता है। इस अधिनियम की धारा 115 के तहत स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट किया गया है कि यदि कोई व्यक्ति आत्महत्या करने की कोशिश करता है, तो यह माना जाएगा कि वह अत्यधिक तनाव में था और उस पर आई.पी.सी. की धारा 309 के तहत मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है या उसे दंडित नहीं किया जा सकता है।
आई.पी.सी. की धारा 306 के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है, तो इस तरह की आत्महत्या करने में सहायता करने वाले व्यक्ति को दस साल तक की कैद या जुर्माना या दोनों से दंडित किया जा सकता है। आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत यह प्रावधान दिया गया है कि यह अपराध संज्ञेय, गैर-जमानती, गैर-शमनीय और सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय हैं।
‘आत्महत्या’ शब्द
आई.पी.सी. के तहत कहीं भी ‘आत्महत्या’ शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा एम. मोहन बनाम राज्य पुलिस उपाधीक्षक (2011) के मामले में यह कहा गया था कि ‘आत्महत्या’ शब्द अपने आप को जान से मार देने के लिए इस्तेमाल होता है। इसका अंग्रेजी शब्द सुसाइड होता है, जिसे दो शब्दो से मिलाकर बनाया गया है, यानी ‘सुई’ जिसका अर्थ है ‘स्वयं’ और ‘साइड’ जिसका मतलब ‘हत्या’ है। यह ‘आत्महत्या’ या ‘अपना जीवन लेने’ का कार्य है, इसलिए आत्महत्या करने वाले व्यक्ति के द्वारा खुद ही ऐसा किया जान चाहिए, भले ही वह खुद को मारने के अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करता हो। हालांकि आत्महत्या हमारे देश में अपराध नहीं है क्योंकि सफल ‘अपराधी’ कानून की पहुंच से बाहर हो जाता है, आत्महत्या करने का प्रयास आई.पी.सी. की धारा 309 के तहत एक अपराध है, हालांकि मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 2017 द्वारा इसके दायरे को गंभीर रूप से प्रतिबंधित कर दिया गया है।
उकसाने के लिए उच्च स्तर की क्रूरता की आवश्यकता होती है
दिल्ली उच्च न्यायालय के द्वारा कौशल किशोर बनाम एन.सी.टी. राज्य दिल्ली (2019) के मामले में यह कहा गया था कि आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत उकसाने के लिए आवश्यक क्रूरता की सीमा, आई.पी.सी. की धारा 498 A के तहत अपराध को स्थापित करने के लिए आवश्यक उत्पीड़न और क्रूरता की सीमा से अधिक होगी। और यह नहीं माना जा सकता है कि चूंकि एक आरोपी को आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत अपराध से रिहा कर दिया गया है, इसलिए उसे आई.पी.सी. की धारा 498 A के तहत किए गए अपराध से भी स्वतः ही छोड़ दिया जाएगा।
बॉम्बे उच्च न्यायालय के द्वारा प्रमोद श्रीराम तेलगोटे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2018) के मामले में यह कहा गया कि आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिए, अपराध करने के लिए एक निश्चित मेंस रीआ होनी चाहिए। इसके लिए एक सक्रिय (एक्टिव) या प्रत्यक्ष कार्य की भी आवश्यकता होती है जिसके कारण मृतक के पास आत्महत्या करने के अलावा और कोई अन्य विकल्प न बचा हो, और यह भी कि उस व्यक्ति के आचरण का उद्देश्य मृतक को ऐसी स्थिति में रखना था, कि उससे वह आत्महत्या कर ले। किसी व्यक्ति को आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत दोषी ठहराए जाने के लिए मेंस रीआ होना बहुत ही अनिवार्य है।
श्रीमती जियान कौर बनाम पंजाब राज्य (1996)
श्रीमती जियान कौर बनाम पंजाब राज्य (1996) के मामले में न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय इस प्रकार है:
मामले के तथ्य
इस मामले में, जियान कौर और उनके पति हरबंस सिंह पर अपनी बहू की आत्महत्या में उसको उकसाने का आरोप लगाया गया था। निचली अदालत के द्वारा दोनों को आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत दोषी करार देते हुए छह-छह साल के कठोर कारावास और 2,000 रुपये का जुर्माना देने की सजा सुनाई गई थी। अगर वे समय पर जुर्माना नहीं भर पाए तो उन्हें 9 महीने की अतिरिक्त कैद की सजा दी जाएगी। यह मामला पंजाब के उच्च न्यायालय में गया, जिसने निचली अदालत के फैसले की पुष्टि की और जेल की सजा को छह से तीन साल से कम कर दिया।
मामले का मुद्दा
इस मामले में उठाया गया मुख्य मुद्दा यह था कि आई.पी.सी. की धारा 306 संवैधानिक रूप से वैध है या नहीं।
न्यायालय का फैसला
इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह फैसला सुनाया गया था कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल नहीं है। आई.पी.सी. की धारा 306 और 309 संवैधानिक रूप से वैध हैं। आत्महत्या के लिए उकसाना या आत्महत्या का प्रयास करना एक अलग अपराध है, जिन्हे उन देशों में भी देखा जाता है जहां आत्महत्या का प्रयास सजा के अधीन नहीं है। आई.पी.सी. की धारा 306, आई.पी.सी. की धारा 309 से स्वतंत्र रूप से मौजूद हो सकती है क्योंकि यह एक अलग अपराध बनाती है। यह मानने का कोई कारण नहीं है कि आई.पी.सी. की धारा 309 असंवैधानिक है। अदालत के द्वारा यह फैसला सुनाया गया कि जो कोई भी अपराध करने में किसी अन्य व्यक्ति की सहायता करता है और उसे उकसाता है, उसे दस साल तक के कठोर कारावास, जुर्माना या दोनों से दंडित किया जाएगा।
रमेश कुमार बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2001)
रमेश कुमार बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2001) के मामले में न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय इस प्रकार है:
मामले के तथ्य
इस मामले में, विवाहित जोड़े के बीच विवाद के दौरान, पति ने अपनी पत्नी से कहा कि “आप जो चाहती हैं उसे करने के लिए स्वतंत्र हैं और आप जहां चाहें वहां जा सकती हैं।” इस टिप्पणी के परिणामस्वरूप, पत्नी ने खुद पर मिट्टी का तेल डालकर और खुद को आग लगाकर आत्महत्या कर ली।
मामले का मुद्दा
इस मामले में जो मुख्य मुद्दा उठाया गया था वह यह था कि क्या आरोपी का आचरण या उसके द्वारा दिए गए कथन ने महिला को आत्महत्या करने के लिए प्रोत्साहित किया था।
न्यायालय का फैसला
इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह निर्धारित किया गया था कि इस निष्कर्ष का समर्थन करने के लिए रिकॉर्ड पर कोई सबूत या सामग्री नहीं थी कि आरोपी ने मृतक की आत्महत्या को उकसाया है। इस मामले में सम्बोधित सभी परिस्थितियाँ, विशेष रूप से मृत्यु से पहले की घोषणा और स्वयं मृतक द्वारा छोड़े गए सुसाइड नोट, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 113 A में उल्लिखित अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) “मामले की अन्य सभी परिस्थितियों” के तहत मूल्यांकन (इवेल्यूएशन) के लिए सामने आते हैं और यह इसके तहत आरोपी के खिलाफ किसी भी अनुमान को लागू करने की अनुमति नहीं देती हैं। नतीजतन, आरोपी आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत आरोप से बरी होने का पात्र है।
न्यायालय ने ‘उत्तेजना’ शब्द का विश्लेषण किया और जोर देकर कहा कि उकसाने की आवश्यकता को पूरा करने के लिए, हालांकि इस तरह के परिणाम के लिए सटीक शब्दों का उपयोग किया जा सकता है, परिणाम को भड़काने के लिए एक तर्कसंगत (रैशनल) प्रतिभू (श्योरिटी) सही ढंग से लिखी जानी चाहिए। हताशा या भावना से निकले शब्द को ‘उत्तेजना’ नहीं कहा जा सकता है।
चित्रेश कुमार चोपड़ा बनाम राज्य (एन.सी.टी. दिल्ली सरकार) (2009)
चित्रेश कुमार चोपड़ा बनाम राज्य (एन.सी.टी. दिल्ली सरकार) (2009) के मामले मे न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय इस प्रकार है:
मामले के तथ्य
इस मामले में, मृतक ने अपनी लाइसेंस कराई हुई पिस्टल से खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली। इस अपील में यह दावा किया गया था कि मृतक अपीलकर्ता के साथ-साथ दो अन्य व्यक्तियों, जहरुद्दीन और महावीर प्रसाद, जो सभी अचल संपत्ति के कारोबार में शामिल थे, के साथ एक भागीदार (पार्टनर) था। इन तीन व्यक्तियों के कारण हुए विवाद के परिणामस्वरूप मृतक ने आत्महत्या कर ली थी; मृतक अपने पीछे एक सुसाइड नोट छोड़ गया था, जिसमें यह उल्लेख किया गया था कि उनके बीच कुछ वित्तीय (फाइनेंशियल) लेनदेन थे, और इसलिए, इन तीन व्यक्तियों ने मृतक को आत्महत्या करने कर लिए उकसाया थी। विचारण न्यायालय को यकीन था कि तीनों प्रतिवादियों को आरोपित करने के लिए दस्तावेज में पर्याप्त सबूत थे। अपीलकर्ता ने आरोप की व्याख्या से असंतुष्ट होकर दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष एक पुनरीक्षण (रिवीजन) याचिका दायर की थी। लेकिन, जैसा कि पहले कहा गया था, उच्च न्यायालय ने आरोप स्थापित करने के आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था।
मामले का मुद्दा
इस मामले में जो मुख्य मुद्दा उठाया गया था, वह यह था कि क्या आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत, मानसिक प्रताड़ना (टॉर्चर) से आत्महत्या करने में मदद मिलती है।
न्यायालय का फैसला
इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह निर्धारित किया गया था कि अपीलकर्ता ने मृतक को मानसिक रूप से प्रताड़ित किया था और उसे मनोवैज्ञानिक यातना के कथित कार्य के द्वारा आत्महत्या करने में सहायता की थी और इसलिए उस के द्वारा आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत दंडनीय अपराध किया गया था।
न्यायालय ने यह माना कि आरोपी का इरादा किसी अपराध को करने के लिए उकसाने, फुसलाने या उसको बढ़ावा देने का होना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति की आत्महत्या करने की प्रवृत्ति (टेंडेंसी) अलग होती है, जैसा कि प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्ति निष्ठा (सेल्फ एस्टीम) और आत्म सम्मान की अवधारणा होती है। इसके अलावा, आत्मघाती (सुसाइडल) स्थितियों से निपटने के लिए कोई सीधा तरीका नहीं है, और प्रत्येक मामले का मूल्यांकन उसके विशेष तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर किया जाना चाहिए।
यदि अपराधी की गतिविधियों या लगातार आचरण के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि मृत व्यक्ति के पास आत्महत्या करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता है, तो आरोपी आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत उत्तरदायी होगा। यह सत्यापित (वेरिफाई) करने के लिए कि आरोपी ने किसी व्यक्ति द्वारा आत्महत्या करने में सहायता की है या नहीं, यह स्थापित किया जाना चाहिए कि:
अमलेंदु पाल @ झंटू बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2009)
अमलेंदु पाल @ झंटू बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2009) के मामले में न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय इस प्रकार है:
मामले के तथ्य
इस मामले में, अपीलकर्ता अमलेंदु पाल और मृतक दीपिका ने 1977 में शादी की थी। शादी से उनके दो बेटे पैदा हुए थे। अपीलकर्ता अपने रोजगार और कमाई के कारण कोलकाता में रह रहा था। कोलकाता में रहने के दौरान, अपीलकर्ता का अनीता नाम की एक महिला के साथ विवाहेतर (एक्स्ट्रा मैरिटल) संबंध था। मृतक को अनीता के साथ अपीलकर्ता के संपर्क के बारे में पता चला और मृतक ने इस तरह के नाजायज संबंध का विरोध किया था। अपीलकर्ता ने मृतक से अनीता से विवाह करने की अनुमति मांगी, जिसे मृतक ने अस्वीकार कर दिया था। नतीजतन, अपीलकर्ता ने मृतक को भावनात्मक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। मृतका को कथित तौर पर अपीलकर्ता द्वारा जहर खाकर अपना जीवन समाप्त करने के लिए प्रेरित किया गया था।
मामले का मुद्दा
इस मामले में जो मुख्य मुद्दा उठाया गया था वह यह था कि क्या पीड़िता के उत्पीड़न ने उसे आत्महत्या करने और अपना जीवन समाप्त करने के लिए प्रेरित किया था।
न्यायालय का फैसला
इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह माना गया था कि आत्महत्या के लिए उकसाने की स्थिति में प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) या अप्रत्यक्ष (इनडायरेक्ट) रूप से आत्महत्या के लिए उकसाने वाले कार्य का सबूत होना चाहिए। आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत दोषसिद्धि, घटना के समय आरोपी की ओर से किसी भी सकारात्मक कार्रवाई जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया या मजबूर किया है, के बिना, पूरी तरह से अपमानजनक व्यवहार के आरोप के आधार पर संभव नहीं हो सकती है।
आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत कार्रवाई करने के लिए, पहले तो आत्महत्या का मामला होना चाहिए और साथ ही इस व्यक्ति द्वारा आत्महत्या की जानी चाहिए, और जिस व्यक्ति पर आत्महत्या करने मे समर्थन करने और उस व्यक्ति को प्रोत्साहित करने का आरोप लगाया गया है, उसे उकसावे के आचरण के माध्यम से या उस अपराध को करने ने मृतक व्यक्ति की सहायता के लिए एक विशिष्ट कार्य करके सक्रिय भाग लेना चाहिए था।
आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत महत्वपूर्ण मामले
गुरचरण सिंह बनाम पंजाब राज्य (2020)
गुरचरण सिंह बनाम पंजाब राज्य (2020) के मामले में न्यायालय द्वारा दिया गया फैसला इस प्रकार है:
मामले के तथ्य
इस मामले में अपीलकर्ता की शादी मृतक से हुई थी और दंपति (कपल) का एक बेटा था (जो लगभग 2 साल था) और एक बेटी थी (जो 8/9 महीने की) थी। अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) पक्ष के आधार पर, शादी के बाद मृतक के साथ दुर्व्यवहार किया गया था क्योंकि वह पर्याप्त दहेज नहीं लायी थी। हालांकि उसके पति के खिलाफ आत्महत्या में उसकी मदद करने और उसे उकसाने का कोई आरोप नहीं लगाया गया था, लेकिन निचली अदालत के द्वार यह फैसला सुनाया गया कि उसे आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत अपनी पत्नी को आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी पाया जा सकता है।
मामले का मुद्दा
इस मामले में उठाया गया मुख्य मुद्दा यह था कि क्या अपीलकर्ता वैवाहिक घर में ऐसा माहौल बनाने के लिए जिम्मेदार है, जिसके कारण मृतक की आत्महत्या हुई थी।
न्यायालय का फैसला
इस मामले मे, सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह कहा गया था कि न तो विचारणीय न्यायालय और न ही उच्च न्यायालय ने इस बात पर विचार किया है कि क्या अपीलकर्ता के पास अपराध करने के लिए मानसिक शक्ति थी, जिसके लिए उसे दोषी पाया गया था। उन्होंने इस सिद्धांत पर दृढ़ विश्वास की भविष्यवाणी की, कि दो छोटे बच्चों वाली एक युवती ने एक वैवाहिक घर में अपमानजनक व्यवहार के परिणामस्वरूप आत्महत्या करने का फैसला किया था, जो मामले में प्रस्तुत साक्ष्य द्वारा समर्थित नहीं था। आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिए अपराध करने के लिए स्पष्ट रूप से मेंस रीआ उपस्थित होना चाहिए।
अमलेंदु पाल उर्फ झंटू बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2009) के मामले में, न्यायालय द्वारा यह माना गया था कि आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत दोषसिद्धि उस समय के अनुकूल आचरण की पुष्टि के बिना दुर्व्यवहार के एक साधारण आरोप के आधार पर संभव नहीं है जब यह आचरण आरोपी की ओर से हुआ था, और जिसके कारण उस व्यक्ति ने आत्महत्या की थी।
सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा विचारणीय न्यायालय और पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के द्वारा दिए गए फैसलों को पलटते हुए कहा गया था कि यह परिणाम कि मृतक को उसके वैवाहिक घर में कुछ ऐसी परिस्थितियों और माहौल से आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया गया था, केवल एक निहितार्थ (इंप्लीकेशन) था, जिसमे किसी भी भौतिक समर्थन की कमी थी और इसलिए आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत अपीलकर्ता की सजा को बनाए रखने के लिए इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।
जियो वर्गीज बनाम राजस्थान राज्य (2021)
जियो वर्गीज बनाम राजस्थान राज्य (2021) के मामले मे न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय इस प्रकार है:
मामले के तथ्य
इस मामले में, कक्षा 9 का एक बच्चा बहुत मानसिक तनाव में था क्योंकि अपीलकर्ता (जी.ई.ओ., पी.टी.आई. सर) ने उसे सबके सामने प्रताड़ित किया था और अपमानित किया था, इसलिए उसने 25 अप्रैल, 2018 को स्कूल जाने से इनकार कर दिया था, लेकिन उसके परिवार ने उसे स्कूल जाने के लिए मना लिया था। लड़के को सूचित किया गया कि उसके माता-पिता को अगले दिन स्कूल बुलाया गया था, जिससे उसका तनाव और चिंता बढ़ गई। जिसके परिणामस्वरूप, 26 अप्रैल 2018 को बच्चे ने आत्महत्या कर ली।
मामले का मुद्दा
इस मामले में जो मुख्य मुद्दा उठाया गया वह यह था कि क्या शिक्षक की डांट को आत्महत्या के लिए उकसाना माना जाना चाहिए।
न्यायालय का फैसला
इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह कहा गया था कि एक प्रोफेसर या अन्य स्कूल प्रशासन द्वारा किसी छात्र को उसके दुर्व्यवहार के लिए डांट लगाने की अनुशासनात्मक (डिसिप्लिनरी) कार्रवाई, किसी छात्र को आत्महत्या के प्रयास के लिए उकसाने के बराबर नहीं होगी। जब तक की बिना किसी उचित मकसद या कारण के अपमानजनक व्यवहार और अपमान के लगातार आरोप न लगाए गए हो।
नतीजतन, यदि किसी छात्र को केवल उसके बुरे आचरण या दुर्व्यवहार के लिए एक प्रोफेसर द्वारा डांट लगाई जाती है और अनुशासनहीनता का कार्य स्कूल के प्रिंसिपल के ध्यान में लाया जाता है, जो स्कूल के अनुशासन को बनाए रखने के लिए उस छात्र के माता-पिता से उस बारे मे करता है और उस बच्चे को सही आचरण करने का प्रयास करता है और कोई भी ऐसा छात्र जो बेहद भावुक या रसिक (सेंटीमेंटल) है, वह आत्महत्या करने का फैसला करता है, तो उक्त प्रोफेसर को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है और आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने के अपराध के लिए आरोपित नहीं किया जा सकता है।
आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप लगाने के लिए, आत्महत्या के अपराध को करने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उकसाने का आरोप शामिल होना चाहिए। किसी अन्य व्यक्ति द्वारा मृतक को प्रताड़ित करने का साधारण आरोप अपने आप में तब तक पर्याप्त नहीं हो सकता है जब तक कि आरोपी की ओर से ऐसे कार्यों के आरोप न हों जो आत्महत्या के लिए मजबूर करते हैं।
शब्बीर हुसैन बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2021)
शब्बीर हुसैन बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2021) के मामले में न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय इस प्रकार है:
मामले के तथ्य
इस मामले में, मृतक की पत्नी रोशन बी, एक दिन वैवाहिक विवाद के चलते अपने माता-पिता के घर वापस चली गई थी। 12 दिनों के बाद, मृतक ने खुद को जहर दिया और अपने घर पर चार आत्महत्या पत्र छोड़ दिए, क्योंकि आरोपी, जो को पत्नी के माता-पिता थे, ने उसकी पत्नी और बेटी को उसके साथ भेजने से इनकार कर दिया था, और जिसके परिणामस्वरूप, उन्हें उसकी मौत के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। मृतक के भाई शब्बीर हुसैन ने प्रतिवादी के खिलाफ आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत शिकायत दर्ज कराई थी।
मामले का मुद्दा
इस मामले में जो मुख्य मुद्दा उठाया गया था, वह था की: इस मामले में बुनियादी सवाल यह था कि क्या आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत साधारण उत्पीड़न, आत्महत्या में मदद करने जैसा है।
न्यायालय का फैसला
सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह फैसला सुनाया गया था कि साधारण उत्पीड़न आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत आत्महत्या के आरोप के लिए उकसाने का मामला नहीं है। न्यायालय ने यह कहते हुए अपना फैसला जारी रखा की चित्रेश कुमार चोपड़ा बनाम राज्य (एन.सी.टी. दिल्ली सरकार) (2009) के मामले में, उकसाना तब होता है जब एक व्यक्ति किसी और को कुछ करने के लिए उकसाता है और यह कि उकसाने को तब निहित किया जा सकता है जब आरोपी ने परिस्थितियों को स्थापित कर दिया हो। मृतक के पास अपने कार्यों या चूकों के परिणामस्वरूप आत्महत्या करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
अदालत ने अपील को खारिज कर दिया, यह देखते हुए कि जो दावा किया गया था कि उसमे मृतक को आरोपी के द्वारा परेशान किया गया था, लेकिन उकसाने के लिए रिकॉर्ड पर कोई अन्य जानकारी नहीं थी।
अतुल कुमार बनाम दिल्ली का एन.सी.टी. राज्य और अन्य (2021)
अतुल कुमार बनाम दिल्ली का एन.सी.टी. राज्य और अन्य (2021) के मामले मे न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय इस प्रकार है:
मामले के तथ्य
इस मामले में, याचिकाकर्ता संयुक्त राज्य अमेरिका में रहता था। याचिकाकर्ता ने ई मेल के माध्यम से मेसर्स पल्ली मोटर्स, जो की मृतक के स्वामित्व में थी, से संपर्क किया, और एक विंटेज मोटरसाइकिल हासिल करने की इच्छा व्यक्त की थी। मृतक ने ई मेल का जवाब मोटरसाइकिल की कीमत के साथ दिया। आवेदक द्वारा यह दावा किया गया था कि मृतक को विंटेज मोटरसाइकिल का पूरा खरीद मूल्य हस्तांतरित (ट्रांसफर) करने के बावजूद भी, मृतक विंटेज मोटरसाइकिल का स्वामित्व याचिकाकर्ता को सौंपने में विफल रहा था। भुगतान करने के लगभग दो साल बाद, याचिकाकर्ता भारत आया और उसने मामला दर्ज किया। उसके बाद, याचिकाकर्ता संयुक्त राज्य अमेरिका वापस लौट गया। तीन से चार दिनों के बाद, मृतक ने अपने पीछे एक पत्र छोड़ कर आत्महत्या कर ली, जिसमें इस मामले में याचिकाकर्ता को उसके जीवन समाप्त करने के निर्णय के लिए दोषी ठहराया गया था।
मामले का मुद्दा
इस मामले में जो मुख्य मुद्दा उठाया गया था वह यह था कि क्या याचिकाकर्ता द्वारा कानूनी नोटिस जारी करना और शिकायत दर्ज करना आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत दंडनीय ‘आत्महत्या के लिए उकसाना’ है।
न्यायालय का फैसला
इस मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय के अनुसार, याचिकाकर्ता के किसी भी कार्य को उकसाने के रूप में स्वीकार करने के लिए, आत्महत्या करने वाले मृतक के साथ, उसके कार्यों की निकटता के साथ-साथ एक महत्वपूर्ण सहसंबंध होना चाहिए। अदालत ने यह निष्कर्ष निकाला कि यह संभव हो सकता है कि मृतक ने इस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करने के बाद नाराज महसूस किया हो और इसलिए आत्महत्या कर ली हो। मृतक को आत्महत्या करने में सहायता करने के लिए याचिकाकर्ता को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। याचिकाकर्ता को कानूनी नोटिस जारी करने और शिकायत दर्ज करने का कानूनी अधिकार था, जैसा कि उसके वकील ने निर्देश दिया था। नतीजतन, याचिकाकर्ता द्वारा मृतक के खिलाफ एक आपराधिक शिकायत दर्ज करना, मृतक को आत्महत्या के लिए उकसाने या उसके लिए प्रेरित करने के लिए मेंस रीआ के रूप में नहीं माना जा सकता है।
दक्साबेन बनाम गुजरात राज्य (2022)
दक्साबेन बनाम गुजरात राज्य (2022) के मामले में न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय इस प्रकार है:
मामले के तथ्य
इस मामले में, आरोपितों पर मृतक के 2,35,73,200 रुपये ठगने का आरोप लगाया गया था। और, जिसके परिणामस्वरूप, मृतक, जो की गंभीर वित्तीय संकट में था, को आत्महत्या करने के लिए मजबूर होना पड़ा था। आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सी.आर.पी.सी.) 1973 की धारा 482 के तहत आरोपी द्वारा लाई गई एक याचिका में, गुजरात उच्च न्यायालय ने प्राथमिकी (एफ.आई.आर।) में नामित अपराधियों और शिकायतकर्ता- मृतक के चचेरा भाई के बीच एक समझौते के आलोक में आरोपी के खिलाफ प्रस्तुत आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत एक प्राथमिकी को रद्द कर दिया था। फैसले को वापस लेने के लिए मृतक की पत्नी द्वारा किए गए आवेदन को भी खारिज कर दिया गया था।
मामले का मुद्दा
इस मामले में उठाया गया मुख्य मुद्दा यह था कि क्या उच्च न्यायालय को सी.आर.पी.सी. की धारा 482 के तहत और आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत दर्ज प्राथमिकी को उस समझौते के आधार पर रद्द करने की शक्ति है।
न्यायालय का फैसला
सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह फैसला सुनाया गया था कि आई.पी.सी. की धारा 306 (आत्महत्या के लिए उकसाना) के तहत दर्ज प्राथमिकी को सी.आर.पी.सी. की धारा 482 के तहत समझौते के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है। गंभीर या जघन्य (हीनियस) अपराध, जो प्रकृति में निजी नहीं होते हैं और जिनका समाज पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है, उन्हें आरोपी और शिकायतकर्ता और/ या पीड़ित के बीच एक समझौते के माध्यम से समाप्त नहीं किया जा सकता है। पीठ ने यह नोट करते हुए शुरू किया कि आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत आत्महत्या करने के लिए एक व्यक्ति की सहायता करना और उसे उकसाने का अपराध एक गंभीर, गैर-शमनीय अपराध है।
आत्महत्या के लिए उकसाने के झूठे मामले में शामिल होने पर क्या किया जाना चाहिए?
ऐसे उदाहरण हो सकते हैं जहां किसी व्यक्ति पर धारा 306 के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने का झूठा आरोप लगाया गया जा सकता है। ऐसे मामलों में, आरोपी को अपने वकील से बात करनी चाहिए और बिना किसी मामूली बदलाव के उस पूरे परिदृश्य (सिनेरियो) की व्याख्या करनी चाहिए, क्योंकि ऐसे बदलवो से मामले पर बड़ा असर पड़ सकता है। आपको वकील के साथ मामले पर पूरी तरह से चर्चा करनी चाहिए, भले ही कई बार अगर आपको लगता है कि आप अपने वकील को मामले में शामिल कुछ तकनीको को समझाने में सक्षम नहीं थे। आपको मामले के बारे में अपना खुद का शोध (रिसर्च) भी करना चाहिए और अपने वकील की मदद से मुकदमे के लिए खुद को तैयार करना चाहिए। आपको अपने वकील के निर्देशों का ठीक से पालन करना चाहिए और अदालत में आपकी उपस्थिति जैसी मामूली बातों के लिए भी सलाह लेनी चाहिए।
आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने का कार्य तब होता है जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रेरित या सहायता किए जाने के बाद आत्महत्या कर लेता है। इस प्रावधान की प्रयोज्यता केवल तीन मुख्य श्रेणियों तक ही सीमित है, अर्थात् आत्महत्या करना, ऐसी आत्महत्या के लिए उकसाना या उत्तेजित करना और आत्महत्या के लिए उकसाने और आत्महत्या करने के बीच सीधा संबंध। आरोपियों को अक्सर ऐसे अपराधों से संबंधित दंडात्मक नियमों से आसानी से बचने के लिए देखा जाता है, जिसके परिणामस्वरूप, उकसाने के आरोप से जुड़े नियमों को संशोधित किया जाना चाहिए ताकि अपराधी कानूनों को चकमा न दे सकें, और अपने हितों के अनुरूप मामलों को संशोधित न कर सकें और सजा से न बच सकें।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफ.ए.क्यू.)
आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत अपराध की प्रकृति क्या है?
आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत अपराध की प्रकृति इस प्रकार है:
आई.पी.सी. की धारा 306 के आवश्यक तत्व क्या हैं?
आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत अपराध के आवश्यक तत्वों को गुजरात उच्च न्यायालय ने गुजरात राज्य बनाम रावल दीपककुमार शंकरचंद (2022) के मामले में उजागर किया था। वे इस प्रकार हैं:
क्या हमें आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत जमानत मिल सकती है?
आई.पी.सी. की धारा 306, आत्महत्या के लिए उकसाने का अपराध है और यह एक गैर-जमानती अपराध है। इसलिए आरोपी इस धारा के तहत अधिकार के रूप में जमानत नहीं मांग सकता है। यह न्यायालय के विवेक पर ही निर्भर करता है। सी.आर.पी.सी. की धारा 437 के अनुसार, अदालत जमानत देने से पहले कुछ कारकों की जांच करेगी जैसे कि अपराध का सार और गंभीरता, सबूत की प्रकृति, परिस्थितियां, गवाह से छेड़छाड़ का उचित संदेह, आम जनता के हित आदि। आप अग्रिम (एंटीसिपेटरी) जमानत के लिए सत्र अदालत में याचिका भी दायर कर सकते हैं और अगर अदालत ऐसी याचिका को खारिज कर देती है, तो आप अग्रिम जमानत के लिए उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर सकते हैं।