परिचय
भारत का संविधान देश का सर्वोच्च कानून है। इसमें मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट्स), मौलिक कर्तव्य (फंडामेंटल ड्यूटीज), निर्देशक सिद्धांत (डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स) और सरकार के कर्तव्य भी शामिल हैं। यह वर्ष 1947 में डॉ. बी.आर. अम्बेडकर की अध्यक्षता वाली संविधान सभा के द्वारा तैयार किया गया था, और यह 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया था। तब से, संविधान में बहुत से संशोधन हुए हैं, जिनमें 42 वें और 86 वें संविधान संशोधन के द्वारा मौलिक कर्तव्यों को संविधान में जोड़ना भी शामिल है। संविधान में दो “मूल सिद्धांतों” का अस्तित्व होने से यह प्रश्न उठता है कि इन दोनों के बीच क्या अंतर है? क्या दोनों मूल सिद्धांत कानूनी रूप से लागू करने योग्य हैं? संविधान में इन दोनों सिद्धांतो की क्या जरूरत है? इस लेख में, हम इन सवालों के साथ साथ कुछ अन्य सवालों के जवाब देने का भी प्रयास करेंगे।
मौलिक अधिकार क्या होते हैं
जैसा कि हमे इसके नाम से ही पता चलता है, मौलिक का अर्थ कुछ ऐसी चीज होती है जो किसी और चीज के कार्य करने के लिए सबसे आवश्यक होती है। इस प्रकार, मौलिक अधिकार बुनियादी (बेसिक) मानव अधिकार हैं, जो भारत के नागरिकों को उनके अलग अलग जन्म स्थान, धर्म या लिंग के उपर ध्यान दिए बिना प्रदान किए जाते हैं। ये अधिकार किसी भी लोकतंत्र की नींव होते हैं क्योंकि यह लोकतांत्रिक समाज में रहने वाले लोगों को किसी भी दमन (सप्रेशन) के डर के बिना, अपनी क्षमताओं को हासिल करने में सक्षम बनाते है। ये अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हैं। भारत में, ये अधिकार भारतीय संविधान के भाग III के तहत अनुच्छेद 14 से अनुच्छेद 35 तक प्रदान किए गए हैं। भारतीय संविधान इन मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है और साथ ही इनके लिए सुरक्षा भी प्रदान करता है। आइए इन अधिकारों में से प्रत्येक को देखें:
समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
इस अनुच्छेद के तहत कहा गया है कि कानून की नजर में सभी व्यक्ति समान हैं और उनके साथ समान व्यवहार किया जाता है। इसमें यह भी कहा गया है कि व्यक्तियों को कानून का समान संरक्षण प्रदान किया गया है। इसका मतलब यह है कि समान स्थितियों में सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार किया जाएगा।
इस अनुच्छेद के तहत, किसी भी प्रकार के भेदभाव को प्रतिबंधित किया गया है। किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, लिंग, जाति या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है। इस अनुच्छेद को आगे 4 भागों में विभाजित किया गया है:
इस अनुच्छेद का उद्देश्य नागरिकों को राज्य द्वारा प्रदान किए गए रोजगार में समान अवसर प्रदान करना है। इस अनुच्छेद को आगे 5 भागों में बांटा गया है:
इस अनुच्छेद के तहत अस्पृश्यता की प्रथा को प्रतिबंधित किया गया है। किसी भी रूप में अस्पृश्यता का आचरण करना एक दंडनीय अपराध है।
इस अनुच्छेद के तहत राज्य को व्यक्तियों को उपाधियाँ प्रदान करने से रोका गया है। हालाँकि, राज्य को ऐसी उपाधियाँ प्रदान करने से प्रतिबंधित नहीं किया गया है जो प्रकृति में शैक्षणिक या सैन्य होती हैं।
स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
यह अनुच्छेद भारत के नागरिकों को 6 स्वतंत्रताओं की गारंटी प्रदान करता है।
इस अनुच्छेद के तहत अपराधों के लिए आरोपी व्यक्तियों को सुरक्षा प्रदान की गई है। इसके तहत 3 उप खंड प्रदान किए गए हैं:
इस अनुच्छेद के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान किया गया है। कानून द्वारा स्थापित की गई प्रक्रिया के अलावा किसी भी व्यक्ति को इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।
इस अनुच्छेद के तहत, गिरफ्तारी के मामले में व्यक्तियों को विभिन्न प्रक्रियात्मक (प्रोसीजरल) सुरक्षा उपाय प्रदान किए गए है, जैसे की गिरफ्तारी के आधार के बारे में सूचित करने का अधिकार और गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने के लिए पुलिस अधिकारियों का कर्तव्य, आदि।
शोषण (एक्सप्लॉयटेशन) के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
इस अनुच्छेद के तहत मानव के दुर्व्यपार और किसी भी प्रकार के जबरन श्रम को प्रतिबंधित किया गया है।
इस अनुच्छेद के तहत 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखानों या खानों जैसे खतरनाक स्थानों में नियोजित करने पर रोक लगाई गई है।
धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
इस अनुच्छेद के तहत देश के प्रत्येक नागरिक के लिए धर्म की स्वतंत्रता सुनिश्चित की गई है।
इस अनुच्छेद के तहत प्रत्येक धार्मिक व्यवस्था को धार्मिक संस्थाओं को स्थापित करने और बनाए रखने और उनके मामलों का प्रबंधन करने का अधिकार दिया गया है।
इस अनुच्छेद के तहत प्रदान किया गया है कि राज्य द्वारा किसी विशेष धर्म के प्रचार और रखरखाव के लिए कोई कर नहीं लगाया जाएगा।
इस अनुच्छेद के तहत यह प्रदान किया गया है कि धार्मिक समूह, धार्मिक शिक्षा के प्रसार (डिसेमिनेशन) के लिए शैक्षणिक संस्थान स्थापित कर सकते हैं।
सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
इस अनुच्छेद के तहत यह प्रदान किया गया है कि लोगों के एक समुदाय को अपनी भाषा, लिपि या संस्कृति के संरक्षण का अधिकार है।
इस अनुच्छेद के तहत धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने की अनुमति प्रदान की गई है।
इस अनुच्छेद के तहत नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में उपचार की गारंटी प्रदान की गई है। यह आधिकार नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने पर सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने की अनुमति देता है।
इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि संपत्ति का अधिकार शुरू में एक मौलिक अधिकार था। लेकिन वर्तमान में, यह अनुच्छेद 300A के तहत एक कानूनी अधिकार है ।
मौलिक कर्तव्य क्या होते हैं?
मौलिक कर्तव्य, देश के प्रति नागरिकों के नैतिक दायित्व हैं। वे भारतीय संविधान के भाग IVA के तहत अनुच्छेद 51A में प्रदान किए गए हैं। मूल रूप से, ये संविधान का हिस्सा नहीं थे। लेकिन उन्हें 42वें और 86वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ा गया था, जिसकी सिफारिश स्वर्ण सिंह समिति के द्वारा की गई थी। मौलिक कर्तव्यों की अवधारणा यू.एस.एस.आर. से उधार ली गई थी। नीति-विषयक (एथिकल), नैतिक और सांस्कृतिक आचार संहिता तैयार करने के लिए इन कर्तव्यों का मसौदा (ड्राफ्ट) तैयार किया गया था। देश की संप्रभुता (सोवरेनिटी), एकता और अखंडता (इंटीग्रिटी) की रक्षा के लिए नागरिकों के द्वारा इनका पालन किया जाता है।
सबसे पहले संविधान में 10 मौलिक कर्तव्य थे, जिन्हे 42 वें संशोधन के द्वारा जोड़ा गया था गए, और फिर बाद में, 86 वें संशोधन द्वारा एक और मौलिक कर्तव्य जोड़ा गया था। 11 मौलिक कर्तव्य इस प्रकार हैं:
मौलिक अधिकारों को लागू करना
हमने यह देखा है कि इस देश के नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। अब सवाल यह उठता है कि इन अधिकारों को कैसे लागू किया जाता है? इन अधिकारों को, प्रस्तावित किए गए कानून को ग्रहण कर देने की शक्ति कौन देता है?
इस सवाल का उत्तर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 में दिया गया है। यह अनुच्छेद नागरिकों के लिए प्रदान किए गए मौलिक अधिकारों को सशक्त बनाता है। मूल रूप से, अनुच्छेद 13 इन मौलिक अधिकारों को सरकार द्वारा उल्लंघन से बचाता है। अनुच्छेद 13(1) में कहा गया है कि संविधान के प्रारंभ से पहले लागू कोई भी कानून, जहां तक वे किसी भी मौलिक अधिकार से असंगत हैं, शून्य हो जाएंगे। इसका मतलब यह है कि संविधान से पहले बनाया गया कोई भी कानून, जो उस समय लागू है, लेकिन इसका कुछ हिस्सा है, जो इन मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर रहा है, तो ऐसे में कानून का वह हिस्सा उस तारीख से शून्य हो जाएगा जिस दिन भारत का संविधान लागू हुआ था, जो कि 26 जनवरी 1950 है। अनुच्छेद 13 (2) घोषित करता है कि राज्य के द्वारा ऐसा कोई भी कानून नहीं बनाया जाएगा जो मौलिक अधिकारों को छीनता है या बदलता है। साथ ही ऐसा कोई भी कानून, उल्लंघन की सीमा तक शून्य होगा।
अब अधिकार प्रदान किए गए है तो उपाय प्रदान करने की भी जरूरत है, नहीं तो यह अधिकार कागज पर सिर्फ शब्द की तरह ही रह जाएंगे और कुछ नहीं। इसके लिए संविधान निर्माताओं ने अंतिम रक्षा प्रदान की है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 32 यह अंतिम रक्षा है। इसमें कहा गया है कि एक नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन उसे देश के सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने की अनुमति देगा। इसलिए जब एक राज्य व्यक्ति को उसके मौलिक अधिकार से वंचित करता है, तो वह कानूनी उपचार के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है। यहां यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि अनुच्छेद 32 अपने आप में एक मौलिक अधिकार है, जिससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि राज्य इस शक्ति को नागरिकों से छीन नहीं सकता है। अनुच्छेद 226 के तहत नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए उच्च न्यायालयों का दरवाजा खटखटाने की भी अनुमति दी गई है। यहां ध्यान देने योग्य कुछ महत्वपूर्ण अंतर यह हैं कि अनुच्छेद 32 एक मौलिक अधिकार है और अनुच्छेद 226 एक कानूनी अधिकार है। उच्च न्यायालयों का दायरा सर्वोच्च न्यायालय की तुलना में व्यापक है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय केवल मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में रिट जारी कर सकता है जबकि उच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों के अलावा कानूनी अधिकारों के उल्लंघन के लिए भी रिट जारी कर सकते हैं।
मौलिक कर्तव्यों का पालन कैसे सुनिश्चित किया जाता है
यदि मौलिक कर्तव्य देश के प्रति नैतिक दायित्व हैं, तो इन कर्तव्यों का पालन कैसे सुनिश्चित किया जाता है? यहां इस बात पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि मौलिक कर्तव्य अदालत के समक्ष लागू करने योग्य नहीं हैं। इसका मतलब यह है कि किसी व्यक्ति को उसके मौलिक कर्तव्यों का पालन न करने के लिए दंडित नहीं किया जा सकता है। इसके कारणों पर नीचे अगले भाग में चर्चा की गई है। इस बार पर भी ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि संविधान में ऐसा कुछ भी नहीं है जो अदालतों द्वारा इन कर्तव्यों को सीधे लागू करने का प्रावधान करता हो। इसका मतलब यह है कि अगर कोई अन्य व्यक्ति इन कर्तव्यों का पालन नहीं करता है तो कोई भी अदालत में उपाय ढूंढने के लिए नहीं जा सकता है।
हालाँकि, संसद कुछ उपयुक्त कानून बनाकर इन कर्तव्यों को अप्रत्यक्ष रूप से लागू कर सकती है। संसद को ऐसा कानून बनाने से कोई नहीं रोकता जो इन कर्तव्यों का उल्लंघन करने वाले किसी भी कार्य को प्रतिबंधित करता हो। इस प्रकार मौलिक कर्तव्यों को परोक्ष (इनडायरेक्ट) रूप से लागू करने योग्य बनाया जा सकता है। आइए कुछ उदाहरण देखते हैं:
यदि कोई अपने मौलिक कर्तव्यों का पालन नहीं करता है तो क्या उसे दंडित किया जा सकता है
मौलिक कर्तव्य, अपनी प्रकृति में लागू करने योग्य या अदालत के समक्ष पेश करने योग्य नहीं है, अर्थात, किसी भी व्यक्ति को मौलिक कर्तव्यों का पालन न करने के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। स्वर्ण सिंह समिति ने इन कर्तव्यों का पालन न करने के लिए दंडात्मक कार्रवाई का प्रस्ताव दिया था, लेकिन बाद में इन्हें खारिज कर दिया गया था। इसका कारण यह था कि उस समय भारत की अधिकांश आबादी निरक्षर थी, और कर्तव्यों को परिभाषित करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भाषा सीमित ज्ञान वाले व्यक्ति के लिए संदेश को समझना कठिन बना देती है। ऐसे में इन कर्त्तव्यों को अदालत के समक्ष लागू करने योग्य या पेश करने योग्य बनाने से बहुत हंगामा हो जाता क्योंकि हर दूसरा व्यक्ति अनजाने में इन कर्तव्यों का उल्लंघन करता ही है। तो जैसा कि हमने उपरोक्त खंड में देखा है, की किसी को भी इन कर्तव्यो का पालन न करने के लिए दंडित नहीं किया जा सकता है। लेकिन किसी को दंडित किया जा सकता है यदि वे एक ऐसा कार्य करते हैं जो निषिद्ध है और जो मौलिक कर्तव्यों का उल्लंघन करता है। इसलिए, यह कहा जा सकता है इनका पालन न करने के लिए कोई दंड नहीं दिया जाता है, लेकिन मौलिक कर्तव्यों का उल्लंघन करने वाले कार्यों के लिए दंड दिया जा सकता है।
मौलिक अधिकारों और मौलिक कर्तव्यों के बीच अंतर
आधार | मौलिक अधिकार | मौलिक कर्तव्य |
परिभाषा | मूल मानव अधिकार, प्रत्येक नागरिक के लिए उपलब्ध हैं, चाहे वह किसी भी जाति, जन्म स्थान, धर्म, जाति, पंथ या लिंग का हो। | यह देश की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा के लिए देश के प्रति नागरिकों का नैतिक दायित्व। |
संविधान का हिस्सा | यह संविधान के भाग III में मौजूद है। | संविधान के भाग IV ए में मौजूद है। |
से उधार | मौलिक अधिकारों की अवधारणा संयुक्त राज्य अमेरिका से उधार ली गई है। | यह अवधारणा यू.एस.एस.आर. से उधार ली गई है। |
उपलब्धता | यह केवल नागरिकों के लिए ही उपलब्ध है लेकिन इनमें से कुछ विदेशियों के लिए भी उपलब्ध हैं। | केवल नागरिकों के लिए उपलब्ध और बाध्यकारी हैं। |
प्रकृति | यह प्रकृति में राजनीतिक और सामाजिक है। | प्रकृति में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक। |
न्यायसंगतता | यह अदालत के समक्ष लागू करने योग्य हैं। | अदालत के समक्ष लागू करने योग्य नहीं हैं |
सामग्री | अनुच्छेद 12 से 35 मौलिक अधिकारों से संबंधित है। | अनुच्छेद 51A मौलिक कर्तव्यों से संबंधित है। |
प्रवर्तनीयता | वे सीधे लागू करने योग्य हैं। | न्यायालयों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से लागू करने का कोई प्रावधान नहीं है। संसद उपयुक्त कानून के माध्यम से उन्हें लागू कर सकती है। |
निष्कर्ष
मौलिक अधिकार और मौलिक कर्तव्य दोनों ही बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे एक दूसरे के पूरक (कॉम्प्लीमेंट) हैं। यदि नागरिकों को प्रदान किए गए कर्तव्यों की उपेक्षा की जाती है तो अधिकारों की कोई मांग नहीं हो सकती है। भले ही केवल मौलिक अधिकार लागू करने योग्य और अदालत के समक्ष पेश करने योग्य हैं, लेकिन तब भी मौलिक कर्तव्य समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। नैतिक दायित्वों का पालन कर के हम एक बेहतर समाज के निर्माण का प्रयास करते हैं, जैसा कि संविधान निर्माताओं संविधान बनाते समय कल्पना की थी। इन कर्तव्यों को लागू करने योग्य नहीं बनाया गया था क्योंकि हर कोई इस अवधारणा को नहीं समझ पाएगा और यह भी समझ नहीं पाएगा कि इन शर्तों का क्या अर्थ है। भारत की ज्यादातर आबादी अशिक्षित होने के कारण इस निर्णय में एक बड़ी भूमिका निभाई। लेकिन हम जैसे लोग जो इन्हें समझने में सक्षम हैं, उन्हें इस देश की बेहतरी के लिए इन विचारों का पालन करना चाहिए और उन्हें ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा देना चाहिए।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
क्या मौलिक अधिकार निरपेक्ष (एब्सोल्यूट) या योग्य हैं?
मौलिक अधिकार योग्य हैं लेकिन निरपेक्ष नहीं। ऐसा इसलिए है क्योंकि राज्य को इन अधिकारों पर उचित प्रतिबंध लगाने की शक्ति प्रदान की गई है। उदाहरण के लिए, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निरपेक्ष नहीं है। राज्य किसी भी व्यक्ति को उत्तरदायी ठहरा सकता है यदि उसके भाषण से दूसरे की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचती है।
मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों में क्या अंतर है?
मौलिक अधिकार किसी देश के नागरिकों को दिए गए बुनियादी मानव अधिकार हैं। वे अदालत के समक्ष लागू करने योग्य हैं। जबकि दूसरी ओर मौलिक कर्तव्य देश के प्रति नागरिकों के नैतिक दायित्व हैं और ये कर्तव्य अदालत के समक्ष लागू करने योग्य नहीं हैं।
मौलिक अधिकारों और मौलिक कर्तव्यों के बीच क्या संबंध है?
मौलिक अधिकारों और मौलिक कर्तव्यों के बीच संबंध यह है कि प्रत्येक अधिकार के लिए एक समान कर्तव्य होता है। एक व्यक्ति के अधिकार को दूसरे व्यक्ति का कर्तव्य माना जाता है। यदि लोग अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते हैं, तो दूसरों के अधिकार प्रभावित होते हैं।