आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सी.आर.पी.सी.), 1973 की धारा 144 के तहत, एक जिला मजिस्ट्रेट, एक उप-मंडल (सब डिविजनल) मजिस्ट्रेट, या राज्य सरकार द्वारा अधिकृत (ऑथोराइज्ड) कोई अन्य प्रशासनिक (एडमिनिस्ट्रेटिव) मजिस्ट्रेट, कथित खतरे या उपद्रव के तत्काल मामलों को रोकने और उनका इलाज करने के आदेश जारी कर सकता है, यह एक औपनिवेशिक (कोलोनियल) युग का क़ानून है, जिसे संहिता में संरक्षित किया गया है। धारा 144, उन मामलों मे लागू होती है जहां आसन्न (इमिनेंट) उपद्रव या किसी घटना के संदिग्ध खतरे की परिस्थितियों में मानव जीवन या उसकी संपत्ति को समस्या या कोई नुकसान पहुंचाया जा सकता है। आम तौर पर सी.आर.पी.सी. की धारा 144 के तहत सार्वजनिक समारोहों पर रोक लगा दी जाती है। इतिहास में, धारा 144 का इस्तेमाल उन रैलियों को रोकने के प्रयास में कुछ बाधाएं लगाने के लिए किया जाता है जो दंगे या अन्य प्रकार की हिंसा को भड़का सकती हैं। जब कोई आपात स्थिति होती है, तो कार्यकारी (एक्जीक्यूटिव) मजिस्ट्रेट को धारा 144 लागू करने का अधिकार दिया जाता है। इंटरनेट शटडाउन और दूरसंचार (टेलीकॉम) सेवाओं पर प्रतिबंध अक्सर धारा 144 के तहत लागू किए जाते हैं।
हाल ही की कुछ घटनाओं ने पिछले कुछ वर्षों में इस प्रावधान की लोकप्रियता को और महत्व को और अधिक बढ़ा दिया है। पिछले दो वर्षों में फैली कोविड-19 की बीमारी में वृद्धि के कारण, सी.आर.पी.सी. की धारा 144 को भारत भर के कई स्थानों पर लागू किया गया था।
कुछ हालिया उदाहरणों में निम्नलिखित शामिल हैं:
1973 की आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सी.आर.पी.सी.) की धारा 144 के तहत किसी भी राज्य या क्षेत्र के कार्यकारी मजिस्ट्रेट, एक स्थान पर चार या अधिक लोगों के इकट्ठा होने पर रोक लगाने का आदेश दे सकते हैं। ऐसी सभा में प्रत्येक प्रतिभागी (पार्टिसिपेंट) को ‘अवैध सभा’ कहा जाता है और उन पर, भारतीय दंड संहिता के अनुसार, दंगा करने का आरोप लगाया जा सकता है।
आसन्न उपद्रव या किसी घटना के संदिग्ध खतरे की परिस्थितियों में, जो मानव जीवन या संपत्ति को कोई समस्या या नुकसान पहुंचा सकती है, वाहा धारा 144 लागू की जाती है। सी.आर.पी.सी. की धारा 144 के अनुसार किए गए आदेश के अनुसार, कोई भी सार्वजनिक सभा या किसी भी प्रकार की सभा नहीं होगी, और जब तक कि आदेश प्रभावी हो तब तक सभी शैक्षणिक संस्थान भी उस समय के दौरान बंद रहेंगे। कुछ कार्य, करवाई या घटनाएँ जिनको करने के लिए आम तौर पर अनुमति दी जाती हैं, वे सब सी.आर.पी.सी. की धारा 144 के तहत निषिद्ध हैं। इसे किसी भी जगह पर शांति और सद्भाव (हार्मोनी) के संरक्षण की गारंटी के लिए लागू किया जाता है। इसके अलावा, कानून प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) को गैरकानूनी सभा को हटा देने से रोकना एक अवैध कार्य है। अधिकारियों को धारा 144 के तहत इंटरनेट कनेक्शन को प्रतिबंधित करने की क्षमता भी दी गई है।
इस धारा के तहत की गई कार्रवाई प्रत्याशित (एंटीसिपेटरी) है, जिसका अर्थ है कि इस धारा का उपयोग विशिष्ट कार्यों को उनके होने से पहले ही सीमित करने के लिए किया जाता है। आपातकालीन स्थितियों में जहां ऐसी घटना का संदेहास्पद (सस्पेक्टेड) जोखिम होता है जो सार्वजनिक शांति और व्यवस्था को गंभीर रूप से बाधित कर सकती है, आमतौर पर प्रत्याशित बाधाओं को लागू किया जाता है। किसी समस्या की तात्कालिकता (अर्जेंसी), धारा 144 को लागू करने का मुख्य कारक है, और इसकी प्रभावशीलता इस अवसर से निर्धारित होती है कि कुछ हानिकारक घटनाओं से बचा जा सकता है। सरकार का मौलिक कर्तव्य, सार्वजनिक शांति और स्थिरता को बनाए रखना है, और उपरोक्त अधिकार कार्यकारी मजिस्ट्रेट की मदद करने के लिए दिया जाता है ताकि आपातकालीन स्थितियों में वह अपने उस कर्तव्य को सफलतापूर्वक पूरा कर सके।
मंज़ूर हसन बनाम मुहम्मद ज़मान(1921) औरशेख पीरू बक्स बनाम कालंदी पति(1969) के मामलों में, इस खंड के कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) से पहले जिन सिद्धांतों पर विचार किया जाना चाहिए, उन्हें और विकसित और अनुमोदित (अप्रूव) किया गया था, जो की इस प्रकार हैं:
राधे दास बनाम जयराम महतो(1929) के मामले में, संपत्ति के एक हिस्से को तर्क में मुद्दे के रूप मे शामिल किया गया था। याचिकाकर्ताओं ने संपत्ति तक, प्रतिवादी की पहुंच पर एक बाधा लगाने का अनुरोध किया, और मजिस्ट्रेट ने धारा 144 के तहत उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया। हालांकि, जब कानूनी प्रक्रिया चल रही थी तो प्रतिवादियों ने याचिकाकर्ताओं पर वही प्रतिबंध लगाने का अनुरोध किया, जिसकी अनुमति मजिस्ट्रेट ने अंततः उसी खंड के यहां प्रदान की। प्रतिवादियों ने इस फैसले के जवाब में वर्तमान कार्रवाई इस आधार पर दायर की कि मजिस्ट्रेट के आदेश ने संपत्ति के उनके स्वामित्व का उल्लंघन किया है। अदालत ने फैसला सुनाया कि यदि परिस्थिति किसी कार्रवाई के लिए कहती है, तो सार्वजनिक शांति और स्थिरता के लिए किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंघन किया जा सकता है।
इस प्रावधान के तहत आदेश को केवल तब ही उचित ठहराया जा सकता है, जब निम्नलिखित में से किसी भी घटना को होने से रोकने की संभावना हो:
परेशानी या तो मानसिक या शारीरिक हो सकती है। शारीरिक परेशानी के मामले में परेशानी देने वाली वस्तु और परेशान हुए व्यक्ति के बीच एक विशिष्ट स्तर (लेवल) की निकटता की आवश्यकता होती है, हालांकि, मानसिक परेशानी के साथ निकटता का कोई मुद्दा नहीं होता है। इस खंड में दोनों प्रकार की परेशानियों को शामिल किया गया है।
आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 144 का उपयोग समाचार पत्रों के खिलाफ, जीवन या स्वास्थ्य के लिए हानिकारक अपराध करने या ड्यूटी पर पुलिस कर्मियों को परेशान करने के लिए उकसाने की उपयुक्त परिस्थितियों में किया जा सकता है। उस कार्य में जीवन या स्वास्थ्य के लिए कोई जोखिम, या एक विवाद, दंगा, या शांति भंग का जोखिम होना चाहिए, भले ही इस धारा के तहत एक आदेश “उपद्रव” से संबंधित हो।
जब तक उनके जीवन या स्वास्थ्य के लिए परेशानी या खतरा पैदा होने की संभावना नहीं है, तब तक महत्वपूर्ण अधिकारियों के खिलाफ साधारण मानहानिकारक (डिफामेटरी) बयान या यहां तक कि अत्यधिक आक्रामक (ऑफेंसिव) अपमानजनक प्रकाशनों (पब्लिकेशंस) को इस खंड के तहत निपटाया नहीं जा सकता है। आपत्तिजनक सामग्री और मानहानि को संबोधित करने के लिए इसे नियोजित (एम्प्लॉय) करके, जिससे शांति भंग होने की संभावना नहीं है, इस खंड का दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए।
इस प्रावधान के तहत एक मजिस्ट्रेट के पास केवल संपत्ति की सुरक्षा के लिए आदेश जारी करने का अधिकार नहीं होता है बल्कि उनके पास यह अधिकार तब भी होता है जब मानव जीवन को कोई खतरा होता या चोट लगती है। जब भी किसी को कोई चोट लगती है, तो वे सहायता के लिए इस धारा की ओर रुख कर सकते हैं। इसलिए, भले ही जिस कार्य या उपाय के लिए शिकायत की गई है, वह ऐसा नहीं है, लेकिन यदि इस पर आगे कार्यवाही करने की अनुमति दी जाती है, तो यह एक अपराध होगा, फिर भी यह केवल एक नागरिक कार्रवाई के लिए आधार प्रदान करेगा।
इस खंड के तहत एक ऐसे कार्य को करने से मना किया जाएगा यदि वह किसी भी बाधा, सार्वजनिक शांति को भंग करने आदि का कारण बन सकता है। एक के बाद एक कई संभावनाओं का विस्तार करते हुए यह बताने के लिए पर्याप्त नहीं है कि निषिद्ध कार्य और सार्वजनिक शांति के व्यवधान (डिजर्प्शन) के बीच एक कारण और प्रभाव संबंध प्रदर्शित करना बोधगम्य (कंसीवेबल) है। संबंध प्रशंसनीय या घनिष्ठ (क्लोज) होना चाहिए, न कि केवल काल्पनिक होना चाहिए। अवैध कार्य और सार्वजनिक शांति के लिए कथित जोखिम के बीच किसी भी निकट या उचित संबंध की अनुपस्थिति एक ऐसा आधार होगा जिस पर उच्च न्यायालय को कार्रवाई करने की आवश्यकता होती है जहां उस विशिष्ट क्षेत्र के लिए कोई अनोखी स्थिति नहीं होती है और मामला व्यापक प्रभाव का होता है।
इस खंड के तहत मजिस्ट्रेट को व्यापक अधिकार दिए गए हैं, और सार्वजनिक शांति को बनाए रखने के लिए एक गंभीर खतरा, व्यक्तियो के निजी हितों के साथ हस्तक्षेप करने को भी सही ठहरा सकता है। हालांकि, विवाद में विरोधी पक्ष पर सार्थक लाभ प्राप्त करने के लिए, एक पक्ष इस खंड पर भरोसा नहीं कर सकता है।
मधु लिमये बनाम उप-मंडल मजिस्ट्रेट(1968)के प्रसिद्ध मामले में, न्यायमूर्ति हिदायतुल्ला ने फैसला सुनाया कि अगर सही तरीके से उपयोग किया जाए तो दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 असंवैधानिक नहीं है और दुरुपयोग की संभावना इसके निरसन को उचित नहीं ठहराती है और जब ठीक से व्याख्या की जाती है, तो संहिता के प्रावधान भारतीय संविधान में निर्धारित स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों से आगे नहीं जाते हैं, यही कारण है कि न्यायालय ने पाया कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 वैध और संवैधानिक है।
यह नहीं कहा जा सकता है कि व्यापक अधिकार जो कुछ मजिस्ट्रेटों को धारा 144 प्रदान करता है, कुछ मौलिक अधिकारों पर अनुचित प्रतिबंध स्थापित करता है क्योंकि आदेश की उपयुक्तता (एप्रोप्रिएटनेस) समीक्षा के अधीन है। इसलिए, मजिस्ट्रेट को इतना व्यापक अधिकार दिया जाना संविधान द्वारा संरक्षित अधिकारों का उल्लंघन नहीं करता है। वर्तमान मामले में मजिस्ट्रेट ने दो मजदूर संघ सदस्यों के बीच हुए विवाद को रोकने के लिए धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा (प्रोहिबिटिव ऑर्डर) जारी की। इस मामले में याचिकाकर्ता ने खंड का विरोध किया क्योंकि इसने मजिस्ट्रेट को मनमाना अधिकार दिया। अदालत ने तर्क दिया कि चूंकि इस शक्ति का उपयोग केवल आपात स्थिति में ही किया जा सकता है, इसलिए इसे मनमाना नहीं कहा जा सकता। न्यायालय ने दावा किया कि चूंकि शक्ति का उपयोग केवल आपात स्थिति में ही किया जा सकता है, इसने कुछ मायनों में मजिस्ट्रेट की मनमाने ढंग से कार्य करने की क्षमता को सीमित कर दिया है।
जिला मजिस्ट्रेट, उप-मंडल मजिस्ट्रेट, या किसी भी कार्यकारी मजिस्ट्रेट को, जिसे विशेष रूप से राज्य सरकार द्वारा सशक्त (एंपावर) किया गया है, उन्हें यह अधिकार दिया गया है की जब भी उन्हें यह प्रतीत होता है कि वह एक लिखित आदेश जारी कर सकते है, और वे यदि आवश्यक हो तो:
आदेश में सभी प्रासंगिक मामले के तथ्य शामिल होने चाहिए और वह आदेश एक सम्मन के रूप में कार्य करना चाहिए। इसे या तो किसी को कुछ भी करने से परहेज करने या जो कुछ भी उनके पास है उसके साथ एक निश्चित तरीके से व्यवहार करने का आग्रह करना चाहिए। धारा 144 के प्रक्रियात्मक पहलुओं में कठोरता का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि इसके लागू होने में कोई दुरुपयोग न हो।
इस धारा में प्रदान की गई तीन स्थितियों में से केवल एक का उपयोग इस धारा को लागू करने के लिए किया जा सकता है, अर्थात्:
आपात स्थिति में आदेश को एकपक्षीय (एक्स पार्टी) बनाया जा सकता है। यह एक विशिष्ट व्यक्ति, एक निश्चित पड़ोस के सभी निवासियों, या व्यापक जनता को संबोधित किया जा सकता है जब यह किसी विशिष्ट स्थान पर स्थित हो। राज्य सरकार या मजिस्ट्रेट या तो अपनी पहल पर या उस पक्ष के अनुरोध के जवाब में आदेश को रद्द या संशोधित कर सकते हैं, जिसके साथ अन्याय हुआ था। जब आवेदन प्राप्त होता है, तो आवेदक को सुनवाई का अधिकार होता है। यदि आवेदन को अस्वीकार कर दिया जाता है, तो अस्वीकरण के कारणों को लिखित रूप में दिया जाना चाहिए। यह आदेश अधिकतम आठ माह के लिए ही प्रभावी हो सकता है।
एम. दास बनाम डीसी दास(1961), 1989 के मामले में यह निर्धारित किया गया था कि कार्यकारी उप-मंडल मजिस्ट्रेट का अधिकार क्षेत्र कार्यकारी मजिस्ट्रेट के अधिकार क्षेत्र के साथ समवर्ती (कंकर्रेंट) है। सार्वजनिक शांति भंग को रोकना प्रावधान का प्रमुख लक्ष्य है। अधिकार क्षेत्र वाला कोई भी प्राधिकरण (अथॉरिटी) प्रावधान को लागू कर सकता है यदि यह एक निवारक (प्रिवेंटिव) उपाय है। ऐसे मामलों में, अधिकार क्षेत्र की प्राथमिकता (प्रायोरिटी) को ध्यान में नहीं रखा जा सकता है। अतः पुनरीक्षण (रिवीजन) में हस्तक्षेप आवश्यक नहीं है क्योंकि कार्यपालिका (एक्जीक्यूटिव) मजिस्ट्रेट नहीं बल्कि उप-मंडल मजिस्ट्रेट ने कार्यवाही शुरु की थी।
इसके अलावा, 1971 के मधु लिमये बनाम उप-मंडल मजिस्ट्रेट के मामले में, यह देखा गया कि स्थिति की तात्कालिकता (अर्जेंसी) और कुछ नकारात्मक घटनाओं को रोकने में सक्षम होने की संभावना को बढ़ाने में इसकी प्रभावशीलता, इस खंड के तहत की गई कार्रवाई के केंद्र में हैं। चूंकि प्रावधान के तहत एकतरफा कार्रवाई की अनुमति दी गई है, इसलिए यह बिना कुछ कहे यह प्रदान करता है कि आपातकाल अचानक होना चाहिए, और नतीजे काफी गंभीर होने चाहिए। हालांकि, यह सामान्य नियम नहीं है कि इस धारा के अनुसार जारी किया गया आदेश बिना गवाही के नहीं किया जा सकता है।
याचिकाकर्ता के अधिवक्ता (अटॉर्नी) ने बहुत सारी दलीलें दीं, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा एक-एक करके उनमें से हर एक को खारिज कर दिया गया था। इस फैसले ने धारा 144 की वैधता का समर्थन करने वाले पांच कारणों को सूचीबद्ध किया।
वे इस प्रकार हैं:
यह सुनिश्चित करने के लिए कि मजिस्ट्रेट को जवाबदेह ठहराया जाता है, उच्च न्यायालय के पास फैसले को रद्द करने या भौतिक तथ्यों का अनुरोध करने का विकल्प होता है। उपरोक्त मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद से, ऐसे कई उदाहरण हैं जहां अदालतों ने इस रणनीति को अपनाया है और यह निर्धारित किया है कि धारा 144 के तहत अनुमत निवारक कार्रवाई उचित है।
इसके अलावा, एक ऐसा प्रतिबंध जो न्याय और स्वतंत्रता के मौलिक मूल्यों के विपरीत चलता है, उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता है। यह जांचना कि जिस पक्ष के साथ अन्याय हुआ है, उसके पास रखी गई सीमाओं या नियुक्ति के लिए विचार किए जाने वाली सीमाओं के खिलाफ प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंट) करने का अधिकार है और यह एक तरीका है या निर्धारित करने के लिए कि क्या कोई प्रतिबंध स्वीकार्य है या नहीं। किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता को पहले उन्हें अपना बचाव करने का मौका दिए बिना नहीं छीना जा सकता है, और वह मौका उचित, निष्पक्ष और यथोचित होना चाहिए। अदालतों को यह भी निर्धारित करना चाहिए कि क्या सीमाएं आवश्यक से अधिक हैं या मनमाने ढंग से लागू की जाती हैं।
एक मजिस्ट्रेट को पहले यह निर्धारित करना चाहिए कि इस धारा के तहत कार्यवाही के लिए पर्याप्त औचित्य है और यह कि तत्काल रोकथाम (प्रिवेंशन) या उपाय वांछनीय (डिजायरेबल) है। इसकी दूसरी आवश्यकता यह है कि मजिस्ट्रेट को यह निर्धारित करना चाहिए कि वह जिस मार्गदर्शन को जारी करने वाले है, वह संभावित रूप से किसी बाधा, परेशानी या कानूनी रूप से नियोजित किसी व्यक्ति को नुकसान पहुंचाने, या मानव जीवन, स्वास्थ्य या जनता की शांति या एक दंगे से सुरक्षा या एक झगड़ा से सुरक्षा के लिए उत्पन्न होने वाली बाधा को रोकेगा या उसे रोकने की कोशिश करेगा। केवल आपातकालीन परिस्थितियों में ही आदेश जारी किया जा सकता है। गैर-आपातकालीन शर्तों के तहत जारी किया गया कोई भी आदेश अमान्य होता है। क्या किसी विवाद के परिणामस्वरूप शांति भंग होने की संभावना है, यह मजिस्ट्रेट द्वारा अनुभवजन्य (एंपायरिकल) आधार पर निर्धारित किया जाना चाहिए। जैसा कि धारा 144(4) में कहा गया है, इस धारा के तहत कोई भी आदेश इसके जारी होने की तारीख से दो महीने से अधिक समय तक लागू नहीं रहेगा, और संहिता की धारा 144 के तहत इसके लिए आदेश पारित करने के लिए उपद्रव या आशंकित खतरे के मामले की तात्कालिकता आवश्यक है, इस धारा के तहत पारित किए जाने वाले आदेश अस्थायी प्रकृति के होने चाहिए। आदेश देने वाले मजिस्ट्रेट को बस इस बात की चिंता होनी चाहिए कि धारा 144 लागू होने के लिए उस समय कोई उपद्रव या खतरा उत्पन्न होना चाहिए। ऐसी आशंका के लिए किसी सबूत की जरूरत नहीं है। इस धारा के तहत एक पक्षीय आदेश की आवश्यकता वाली आपात स्थिति का अस्तित्व या तथ्य यह है की इससे प्रभावित पक्ष को नोटिस देने के लिए पर्याप्त समय नहीं था, मजिस्ट्रेट के रिकॉर्ड में स्पष्ट किया जाना चाहिए।
इस खंड के अनुसार किए गए आदेश को विश्वसनीय साक्ष्य द्वारा समर्थित किया जाना चाहिए। मजिस्ट्रेट इस तरह के सबूत के बिना केवल एक पक्ष की शिकायत के आधार पर आदेश जारी नहीं कर सकता है। इस खंड का उचित उपयोग एक अल्पकालिक (शॉर्ट टर्म) आपातकाल को संबोधित करने या यथास्थिति (स्टेटस क्यूओ) को बनाए रखने के लिए है, लेकिन एक आदेश पारित करने के लिए नहीं है जो प्रभावी रूप से दो विरोधी पक्षों में से एक के पक्ष में अनिवार्य निषेधाज्ञा के रूप में कार्य करता है, जिससे उस पक्ष को पूरी तरह से उसके अन्य सभी नियमित कानूनी अधिकारो को इनकार करने की क्षमता मिलती है और वह भी अंतत: सभी इरादों और उद्देश्यों के लिए इनकार कर दिया जाता है।
सी.आर.पी.सी. की धारा 144 के तहत आदेश देते समय निम्नलिखित दिशानिर्देशों का पालन करना आवश्यक है:
इस धारा के अनुसार जारी किए गए आदेश हमेशा लिखित रूप में होने चाहिए क्योंकि धारा 144 में वाक्यांश “एक लिखित आदेश” का उपयोग किया जाता है। इससे पहले कि आरोपी पर किसी आदेश की अवहेलना (डिसोबे) का आरोप लगाया जा सके, यह पहले लिखित रूप में और औपचारिक रूप से प्रकाशित होना चाहिए। केवल मौखिक निर्देश की अवहेलना के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 188 के तहत कोई लिखित आदेश न होने पर मुकदमा नहीं किया जा सकता है।
इस तथ्य के कारण कि यह धारा एक मजिस्ट्रेट को विषय की स्वतंत्रता को महत्वपूर्ण रूप से प्रतिबंधित करने का अधिकार देती है, यह आवश्यक है कि वह अपने आदेश को ऐसे शब्दों में प्रख्यापित (प्रोमुलगेट) करे जो आम जनता और इससे प्रभावित होने वाले लोगों को यह समझने के लिए पर्याप्त रूप से स्पष्ट हो कि उन्हें क्या क्या करने से मना किया गया है। इस कारण से, धारा 144 में कहा गया है कि मजिस्ट्रेट ऐसे किसी भी आदेश में ऐसे किसी भी फैसले का समर्थन करने वाले प्रासंगिक तथ्यों को स्पष्ट रूप से बताता है। फिर भी, ऐसा आदेश देने से पहले मजिस्ट्रेट को साक्ष्य लेने की आवश्यकता नहीं होती है। इस धारा के तहत आदेश ऐसा होना चाहिए, जो कि पूर्ण और निश्चित है।
एक आदेश को विशिष्ट और शब्दों में सटीक होना चाहिए। एक सशर्त आदेश के पारित होने पर जिसे बाद में पूर्ण बनाया जाएगा या जो अस्पष्टता से भरा हुआ है, उस पर धारा 144(1) और 144(2) द्वारा विचार नहीं किया गया है। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि जिस व्यक्ति के लिए यह आदेश जारी किया गया है उसे ठीक से पता होना चाहिए कि उसे क्या करने से मना किया गया है और क्या नहीं।
मजिस्ट्रेट को, धारा 144 के अनुसार जारी आदेश में निम्नलिखित तत्वों को शामिल करना चाहिए। निषिद्ध कार्य या आचरण दोनों के साथ-साथ ऐसा करने से प्रतिबंधित लोगों को भी इस सूची में शामिल किया गया है। आदेश में विशिष्ट लोगों के नाम शामिल किए जाने चाहिए, और निषिद्ध कार्य का उचित रूप से सटीक वर्णन किया जाना चाहिए। किसी भी अस्पष्टता से जितना हो सके उतना बचा जाना चाहिए।
भौतिक तथ्यों को उस आदेश में व्यक्त किया जाना चाहिए। मजिस्ट्रेट के आदेश में उन ‘भौतिक तथ्यों’ का एक बयान शामिल होना चाहिए, जिसे वह मामले के लिए प्रासंगिक मानता है और जिस पर वह आधारित है। धारा 144 के अनुसार, केवल ‘भौतिक तथ्य’ को प्रकट किया जाना चाहिए, और औचित्य या स्पष्टीकरण या जानकारी के विवरण जिस पर आदेश आधारित है, को प्रकट नहीं किया जाना चाहिए। जब आदेश महत्वपूर्ण जानकारी को प्रकट नहीं करता है, तो इस को उलट दिया जाता है। धारा 144 के तहत एक आदेश को निषिद्ध कार्य और पहचाने गए खतरे के बीच इसके संबंध के एक कारण को प्रदर्शित करना चाहिए। आदेश को बरकरार नहीं रखा जा सकता है यदि यह प्रदर्शित नहीं किया जा सकता है कि इसे जारी करने की तत्काल आवश्यकता है।
निषिद्ध वस्तु को स्पष्ट रूप से घोषित किया जाना चाहिए। निषिद्ध वस्तु को स्पष्ट रूप से इंगित किया जाना चाहिए और किसी विशेष व्यक्ति के लिए कोई विशेष कार्रवाई निषिद्ध है या नहीं, इस बारे में अस्पष्टता के लिए किसी भी जगह की अनुमति देना अनुचित होता है। आदेश में यह निर्दिष्ट होना चाहिए कि यह किससे संबंधित है, वे क्या करने के लिए बाध्य हैं और उन्हें क्या करने से प्रतिबंधित किया गया है। जिन लोगों के खिलाफ निर्देश दिए गए हैं, उनका उल्लेख तब तक किया जाना चाहिए जब तक कि आदेश व्यापक जनता के लिए निर्देशित न हो। यह धारा 144(3) के तहत प्रदान किया गया है। ऐसे आदेश को लागू करना काफी चुनौतीपूर्ण होता है जो विशिष्ट और स्पष्ट नहीं है। उदाहरण के लिए, यदि कोई आदेश आम जनता को दिया जाता है, जो एक निश्चित शहर में अक्सर सार्वजनिक या निजी सड़क मार्गों का उपयोग करता है, तो इसे स्थान के रूप में पर्याप्त रूप से विशिष्ट माना जाएगा और इसलिए इसे अस्पष्ट नहीं माना जा सकता है। हालांकि,
पारंपरिक मानदंड (नॉर्म), कि आदेश को एक विशिष्ट व्यक्ति को निर्देशित किया जाना चाहिए, जो इस उप धारा द्वारा तोड़ा गया है। ऐसे समय हो सकते हैं जब उन व्यक्तियों के बीच अंतर करना असंभव होता है जिनके व्यवहार को नियंत्रित करने की आवश्यकता है और जिनके व्यवहार स्पष्ट हैं क्योंकि आदेश सार्वजनिक व्यवस्था और व्यापक जनता के हित में है। जब जनसंख्या, इस धारा में वर्णित के रूप में विशाल है, तो इस प्रकार एक सामान्य आदेश की आवश्यकता हो सकती है।
आम जनता को तब तक कोई आदेश नहीं दिया जा सकता जब तक कि वे किसी निश्चित स्थान पर बार-बार नहीं जाते। इस धारा के तहत जनता के लिए आदेश जो झूठे या खतरनाक दावों के मुद्रण (प्रिंटिंग) या वितरण को रोकता है,एंपरर बनाम सत नारायण और एक अन्य(1939)मामले में असंवैधानिक पाया गया था। यह निर्णय लिया गया था कि यह आदेश गांव में निजी घरों के मालिकों या रहने वालों को अपने घरों में ऐसी मिसाइलों को इकट्ठा करने से रोकने के लिए प्रभावी होगा, जब आदेश आम तौर पर गांव में ईंट-पत्थर या अन्य मिसाइलों को इकट्ठा करने के खिलाफ जनता को प्रतिबंधित कर रहा था। इस प्रावधान के तहत अदालत का आदेश जिस क्षेत्र पर लागू होता है, उसे इस तरह से निर्दिष्ट करने की आवश्यकता है कि आम जनता तुरंत समझ सके कि वहां क्या प्रतिबंधित है।
शब्द ‘विशेष स्थान’ एक प्रतिबंधित क्षेत्र को संदर्भित करता है, जैसे बाजार या पार्क, लेकिन यह एक शहर के एक हिस्से को भी संदर्भित कर सकता है, जब तक कि यह शहर के अन्य हिस्सों से पर्याप्त रूप से अलग है और स्पष्ट रूप से सीमाएं परिभाषित की गई हैं, जिससे प्रतिबंधित क्षेत्र के स्थान के बारे में जनता के बीच पैदा होने वाले भ्रम को रोका जा सके। एक व्यक्ति जो अक्सर “विशिष्ट स्थान” की यात्रा करता है या कहीं जाता है, तो उसे इस प्रावधान के अर्थ में वहां का निवासी माना जाता है, और इसके अलावा भी इसकी उप धारा उस व्यक्ति को शामिल करती है।
कानून का इरादा उस विशिष्ट स्थान पर किसी व्यक्ति को बार-बार आने या जाने से मना करने का नहीं है, जो यह उप-धारा संदर्भित करती है। बल्कि, यह उस विशिष्ट दिन कुछ आचरण करने से मना करने का इरादा रखता है जब इस तरह के स्थान पर बार बार किसी व्यक्ति का आना जाना होता है। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि धारा 144(3) में वर्णित आदेश जनता के स्वास्थ्य, सुरक्षा, या शांति के लिए खतरे को टालने के लिए हैं। संहिता की धारा 144 (6) यह स्पष्ट करती है कि वे केवल अल्पकालिक आदेश हैं जो उनके किए जाने के दो महीने से अधिक समय तक जारी नहीं रह सकते हैं।
1993 मेंडॉ. अनिंद्य गोपाल मित्रा बनाम पश्चिम बंगाल राज्यके मामले में, पुलिस आयुक्त ने भाजपा, एक राजनीतिक दल, को एक जनसभा आयोजित करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया था और निषेधाज्ञा में ढील देने से इनकार कर दिया था, यह कहते हुए कि एक बैठक आयोजित करते समय पूरी तरह से प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता था, आवश्यक प्रतिबंध लगाए जा सकते थे और निवारक उपाय किए जा सकते थे।
एक बार आदेश ठीक से प्रारूपित (फॉर्मेटेड) हो जाने के बाद, मजिस्ट्रेट को इसे उन लोगों को देना चाहिए जिन्हें विशेष रूप से आदेश में नामित किया गया है। इस मामले में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 134 लागू होती है। हालांकि, कई बार ऐसा भी हो सकता है कि यह बताना असंभव हो कि किसे अपने व्यवहार पर नजर रखने की जरूरत है और कौन इससे बच सकता है। इन परिस्थितियों में, जहाँ व्यक्तियों की संख्या इतनी अधिक है कि उनमें और आम जनता के बीच अंतर नहीं किया जा सकता है, वहाँ एक सामान्य आदेश आवश्यक हो सकता है। इन परिस्थितियों में, दैनिक समाचार पत्र आदि में आदेश के प्रकाशन (पब्लिकेशन) के माध्यम से आदेश की एक सामान्य सेवा की जाती है।
सी.आर.पी.सी. की धारा 144 के तहत जारी किया गया कोई भी आदेश, जैसा कि धारा में स्पष्ट रूप से कहा गया है, उप-खंड (4) के अधीन होगा और केवल दो महीने की अवधि के लिए ही प्रभावी होगा। यह पहले ही कहा जा चुका है कि मजिस्ट्रेट कभी-कभी अपने आदेश को पुनर्जीवित (रिवाइव) करने या फिर से सक्रिय बनाने के लिए अधिकृत (ऑथराइज) नहीं होता है। अधिकार के ऐसा प्रयोग को निस्संदेह दुरुपयोग के रूप में माना जाएगा।
इस धारा के तहत जारी किए गए प्रत्येक आदेश की समाप्ति तिथि दो महीने की होती है।गोविंदा चेट्टी बनाम पेरुमल चेट्टीके 1913 के मामले में फैसले के अनुसार, समय-समय पर अपने आदेश को पुनर्जीवित या फिर से सक्रिय बनाना मजिस्ट्रेट के अधिकार के तहत नहीं है। मजिस्ट्रेट के पास सी.आर.पी.सी. की धारा 144 के स्थायी आदेश के लिए प्रभावी रूप से एक आदेश देने का कोई अधिकार नहीं है।
उषारानी बेज बनाम मंगल मुंडाके 1917के मामले के अनुसार, इस खंड के तहत किसी मुद्दे के समाधान को स्थगित करने के आदेश जारी करना मजिस्ट्रेट के अधिकार का एक अनुचित उपयोग है। नतीजतन, इस खंड के तहत,एमई आपूर्ति कंपनी बनाम बिहार राज्यके 1973के मामले को उचित नहीं ठहराया जा सकता है क्योंकि एक बिजली आपूर्ति (सप्लाई) कंपनी को एक नगरपालिका को फिर से बिजली की आपूर्ति को शुरू करने के लिए एक मजिस्ट्रेट के निर्देश के कारण, आपूर्ति लंबे समय तक जारी रहती है। आदेश की वैधता समाप्त हो गई है। हालाँकि, जैसा किराम नाथ चौधरी बनाम सम्राटके 1907के मामले में निर्धारित किया गया था कि यदि मजिस्ट्रेट आदेश की अवधि निर्दिष्ट करने में विफल रहता है तो आदेश अनुचित नहीं होता है।
यदि राज्य सरकार यह निर्धारित करती है कि सुरक्षा, स्वास्थ्य, या शांति को बाधित करने से विशिष्ट घटनाओं को रोकना आवश्यक है, तो वह इस समय अवधि को दो महीने से अधिकतम छह महीने तक बढ़ा सकती है, जिस तारीख से प्रारंभिक आदेश समाप्त हो रहा है। हालाँकि, एक ही शक्ति का मनमाने ढंग से या अत्यधिक उपयोग नहीं किया जाना चाहिए, और इसे थोपना उचित और निष्पक्ष तरीके से किया जाना चाहिए। चरम परिस्थितियों में जहां स्पष्ट रूप से अन्याय हुआ है या स्पष्ट प्रक्रियात्मक दोष हुआ है, तो सत्र न्यायाधीश या उच्च न्यायालय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के तहत दिया गए आदेश के संदर्भ में भी पुनरीक्षण में हस्तक्षेप कर सकता है।इटावा की जिला परिषद बनाम के.सी. सक्सेनाके 1977 के मामले में यह निर्णय लिया गया था की सी.आर.पी.सी. के तहत किए गए सभी निर्णय उन निर्णयों से अधिक निश्चित होते हैं जिन्हें केवल आरोपी कहते हैं। इसलिए, कार्यवाही को पूरी तरह से बातचीत के रूप में नहीं माना जा सकता है।मौला बक्स अंसारी बनाम राम रूप साहमें 1983 के फैसले के अनुसार, साठ दिन की अवधि को अंतिम आदेश की तारीख के बजाय कार्यवाही की शुरुआत के समय जारी किए गए निषेधात्मक आदेश की तारीख से शुरू किया जाना चाहिए।
इस खंड के अनुसार, एक मजिस्ट्रेट के पास यह अधिकार है कि वह किसी को भी कुछ करने से परहेज करने या उस विशिष्ट संपत्ति के बारे में निर्णय लेने का आदेश दे सकता है, जिसके वह मालिक है या जिसके प्रभारी हैं। इसके तहत आम तौर पर संचलन (मूवमेंट) की स्वतंत्रता, हथियार रखने के अधिकार और अवैध सभा की सीमाओं को संदर्भित किया गया है। यह आमतौर पर स्वीकार किया जाता है कि धारा 144 के तहत तीन या अधिक लोगों के एकत्रित होने पर रोक लगाई जाती है। जब एक व्यक्ति को सीमित करने का निर्देश दिया जाता है, तो एक आदेश दिया जाता है की यदि मजिस्ट्रेट को लगता है कि ऐसा करने से किसी भी व्यक्ति, जो कानूनी रूप से नियोजित है, को कोई बाधा, परेशानी, या नुकसान से बचाया जा सकता है, या मानव जीवन, स्वास्थ्य या सुरक्षा के लिए खतरा है। जब तक राज्य सरकार इस अवधि को लम्बा करना आवश्यक नहीं समझती, धारा 144 के तहत जारी आदेश दो महीने के लिए ही वैध होते हैं। हालांकि, किसी भी स्थिति में, आदेश केवल कुल छह महीने के लिए प्रभावी हो सकता है।
धारा 144 के तहत दिए गए आदेश, जो उस क्षेत्र में किसी भी तरह के हथियार ले जाने पर रोक लगाते है, जहां इसे लागू किया गया है, ऐसे आदेशों का उल्लंघन करने के लिए लोगों को जेल की सजा हो सकती है। इस तरह के अपराध के लिए अधिकतम सजा तीन साल की जेल हो सकती है।
निषेधात्मक आदेशों की अवहेलना करने वाले लोगों पर भारतीय दंड संहिता (आई.पी.सी.) की धारा 188 के तहत आरोप लगाया जाएगा, जो लोक सेवकों द्वारा उचित रूप से प्रख्यापित आदेश की किसी भी अवज्ञा (डिसओबेडियंस) को प्रतिबंधित करता है। अधिकारी के अनुसार, उल्लंघन या उल्लंघन करने वाले लोगों के खिलाफ लागू धारा 188 के तहत पुलिस के पास दो उपखंडों का उपयोग करने का अधिकार है। अपराध की प्रकृति कानून के तहत प्रावधानों के प्रयोग को निर्धारित करती है।
संक्षेप में कहें तो यदि सार्वजनिक क्षेत्र में एक समूह के रूप में चार से अधिक लोगों के उपस्थित होने से कोई मामूली उल्लंघन होता है, तो लोगों के खिलाफ प्रक्रिया शुरू करने के लिए आई.पी.सी. की धारा 188 (1) का उपयोग किया जाएगा। धारा 188 (1) के अनुसार, अवज्ञा के लिए अपराधी को पुलिस द्वारा कुछ समय के लिए हिरासत में लिया जाएगा और बांड पर रिहा कर दिया जाएगा। अधिकारी ने कहा कि, यदि एक मुकदमे के बाद अपराधी दोषी पाया जाता है, तो कानून के तहत सजा के परिणामस्वरूप उसे एक महीने तक की साधारण जेल हो सकती है। हालाँकि यदि सभा में सार्वजनिक सुरक्षा या कानून और व्यवस्था को खतरे में डालने की क्षमता है तो पुलिस इस अधिनियम की धारा 188 (2) के तहत एक उल्लंघन दर्ज करती है।
यदि कोई व्यक्ति धारा 144 की उप-धाराओं का उल्लंघन करता है, तो पुलिस उसे गिरफ्तार कर सकती है। लेकिन इस मामले में पुलिस अपराधी को बांड पर रिहा करने से पहले अधिकतम 24 घंटे तक पकड़ सकती है। यदि अपराधी को दोषी पाया जाता है, तो कानून के तहत अधिकतम जुर्माना और छह महीने तक का साधारण कारावास होता है। इस अधिनियम के दोनों उपखंड संज्ञेय हैं, जिसका अर्थ है कि धारा 144 के उल्लंघन के लिए गिरफ्तारी और बाद में रिहाई की आवश्यकता होगी। यदि अपराधी को दोषी पाया जाता है, तो कानून के तहत अधिकतम जुर्माना छह महीने तक का साधारण कारावास है। अधिनियम के दोनों उपखंड संज्ञेय हैं, जिसका अर्थ है कि धारा 144 के उल्लंघन के लिए गिरफ्तारी और बाद में रिहाई की आवश्यकता होगी।
जब किसी को धारा 144 का उल्लंघन करने के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है, तो पुलिस के पास यह अधिकार होता है कि वह उनसे 1,200 रुपये से 2,500 रुपये के बीच नकद शुल्क वसूल कर सकती है ।
सी.आर.पी.सी. की धारा 144 का प्रयोग करने के कुछ मामलों में, पुलिस को उल्लंघन करने वाले व्यक्ति के वाहन को अस्थायी रूप से जब्त करने का अधिकार होता है। जब्ती का समय बढ़ाए जाने पर भी उल्लंघन करने वाले वाहन के खिलाफ कार्रवाई हो सकती है। चालक का लाइसेंस संभावित रूप से पुलिस द्वारा जब्त किया जा सकता है।
सी.आर.पी.सी. की धारा 144 निर्दिष्ट क्षेत्र में चार या अधिक व्यक्तियों की सभा को एक साथ आने से मना करती है, और लोगों को एक निश्चित समय के लिए कर्फ्यू के दौरान घर के अंदर रहने की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त, सरकार के द्वारा यातायात (ट्रैफिक) को पूरी तरह से प्रतिबंधित किया जाता है। यदि किसी व्यक्ति को कानून का उल्लंघन करता पाया जाता है, तो उस पर लोक सेवक की अवज्ञा करने के लिए धारा 188 के तहत मामला दर्ज किया जाता है।
जब कर्फ्यू होता है, तो कलेक्टर और पुलिस आयुक्त प्रभारी होते हैं। इसके तहत, धारा 144 के अलावा अन्य आवश्यक सेवाओं को भी समाप्त कर दिया जाता है। बैंक, ए.टी.एम., स्कूल, दफ्तर, कॉलेज, खाने-पीने की दुकानें, सब्जी और दूध की दुकानें, अस्पताल समेत आपातकालीन सेवाओं को बंद कर दिया जाता है। केवल कुछ आवश्यक सेवाएं ही अग्रिम (एडवांस) सूचना के साथ संचालित हो सकती हैं। सड़क पर केवल अधिकृत प्रशासनिक (एडमिनिस्ट्रेटिव) और कानून प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) कर्मचारी होते हैं। जब कर्फ्यू लागू किया जाता है, तो जिला प्रशासन को कोई और कार्रवाई करने की आवश्यकता नहीं होती है।
1897 के महामारी रोग अधिनियम के अनुसार, किसी दिए गए क्षेत्र में एक कलेक्टर या मुख्य चिकित्सा अधिकारी लॉकडाउन लगा सकता है। अब उनके पास पांच या अधिक लोगों के समूहों को एक साथ इकट्ठा होने से रोकने का अधिकार है। अस्पताल, बैंक, ए.टी.एम., किराना स्टोर, सब्जी बाजार और दूध की दुकानें तब भी खुली रहती हैं। कुछ शहरों में मीडिया और होटलों के संचालन पर भी कोई सीमा नहीं हो सकती है। लॉकडाउन की स्थिति में, पुलिस को न्यायाधीश की अनुमति के बिना किसी को भी गिरफ्तार करने से प्रतिबंधित किया जाता है। वे चेतावनी जारी कर सकते है और सभी को घर लौटने के लिए कह सकते है। भारतीय दंड संहिता की धारा 269 और 270 पुलिस को यह अधिकार देती है कि यदि कोई व्यक्ति जुझारू (कंबेटिब) हो जाता है तो उसे गिरफ्तार किया जा सकता है। इस प्रकार के प्रतिबंधों में कि यदि कोई क्वारेंटाइन से भाग जाता है, तो उस पर आरोप लगाने के लिए आई.पी.सी. की धारा 271 का इस्तेमाल किया जा सकता है।
यह धारा बहुत आलोचनाओं का शिकार रही है और इसके लिए निम्नलिखित में से कुछ तर्क दिए गए हैं:
आपात स्थिति से निपटने के लिए सी.आर.पी.सी. की धारा 144 का उपयोग बहुत सहायक साबित हो सकता है। कार्यकारी (एग्जीक्यूटिव) शाखा दुरुपयोग की चपेट में है क्योंकि कोई विशेष न्यायिक निगरानी नहीं है और विशिष्ट उद्देश्यों के साथ व्यापक कार्यकारी शक्तियों का कोई सटीक तत्व मौजूद नहीं है। उसी के आलोक में, मजिस्ट्रेट को इस धारा के अनुसार कार्य करने से पहले एक जांच करनी चाहिए और स्थिति की तात्कालिकता पर ध्यान देना चाहिए। इसके अलावा, विधायिका को व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संविधान के मौलिक अधिकारों के तहत व्यक्तियों को दी गई अन्य स्वतंत्रताओं को बनाए रखने की आवश्यकता और तत्काल संवेदनशील स्थितियों से निपटने के लिए पूर्ण शक्ति प्रदान करने की आवश्यकता के बीच एक संतुलन बनाना चाहिए।
यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि, संभावित रूप से मनमानी और विवेकाधीन होने के बावजूद, धारा 144 संकेतकों की सरणी (एरे ऑफ़ इंडिकेटर) का एक अनिवार्य घटक है जो किसी भी जिले के कार्यकारी निकाय द्वारा शुरू किया जाता है ताकि न्यायिक घोषणाओं और अकादमिक टिप्पणियों के आलोक में संबंधित धारा के सावधानीपूर्वक विश्लेषण के बाद तत्काल स्थितियों से बचने के साथ-साथ प्रबंधन भी किया जा सके।
इस धारा की संवैधानिकता पर सवाल उठाने के खिलाफ कई कानूनी कार्रवाइयां भी की गई हैं, और इसे बनाए रखने वाले कई फैसले भी हुए हैं। हालांकि इस धारा के तहत मजिस्ट्रेट को कई विवेकाधीन शक्तियां दी गई हैं, लेकिन किसी भी मनमानी या अन्यायपूर्ण आदेश को रोकने के लिए वे शक्तियां कई प्रतिबंधों के अधीन होती हैं। इस शक्ति का उपयोग अधिक तार्किक (लॉजिकल) है क्योंकि उच्च न्यायालय के पास इस खंड के तहत मजिस्ट्रेट के निर्णय की समीक्षा करने का अधिकार है।
इसके अलावा, दंगों में वृद्धि और सार्वजनिक शांति के लिए खतरा पैदा करने वाली अन्य स्थितियों के कारण मजिस्ट्रेटों के पास इन शक्तियों का होना आवश्यक हो गया है। यह, ये सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है कि आम लोगों को वह सुरक्षा और शांति मिल सके, जो उनके जीवित रहने के लिए बहुत जरूरी है। हालांकि, इस बिंदु पर, यह तर्क दिया जा सकता है कि तत्काल स्थितियों को संबोधित करने के लिए विधायिका के पूर्ण शक्तियों के अनुदान (ग्रांट) और संविधान के मौलिक अधिकार, विशेष रूप से संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत, जब तक कि तत्काल या असामान्य परिस्थितियां मौजूद न हों, के तहत नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अन्य स्वतंत्रता की रक्षा करने की आवश्यकता के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता प्रतीत होती है।
यदि मानव जीवन, स्वास्थ्य या सुरक्षा को कोई खतरा होता है, या किसी दंगे या विवाद की संभावना होती है, तो राज्य सरकार आधिकारिक राजपत्र (ऑफिशियल गैजेट) में प्रकाशन द्वारा अन्य निर्देश जारी कर सकती है। मजिस्ट्रेट के आदेश को कानूनी बल के बिना एक आदेश के रूप में माना जाना चाहिए और उसमें निहित राय की अभिव्यक्ति को किसी भी कानूनी बल या प्रभाव के बिना माना जाना चाहिए, यदि अधिकार क्षेत्र को मानने के लिए यह महत्वपूर्ण शर्त मौजूद नहीं है। इस खंड का उपयोग केवल आपातकालीन स्थितियों में ही किया जाना चाहिए और इसके तहत किसी भी अन्य कानूनी प्रावधानों को बदलने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए जो अधिक उपयुक्त हो सकते हैं और मजिस्ट्रेट को एक जांच करनी चाहिए और इस खंड के तहत आगे बढ़ने से पहले स्थिति की तात्कालिकता को भी नोट करना चाहिए।
1973 की आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सी.आर.पी.सी.) की धारा 144 किसी भी राज्य या क्षेत्र के कार्यकारी मजिस्ट्रेट को किसी विशेष स्थान पर चार या अधिक लोगों के इकट्ठा होने पर रोक लगाने का आदेश देने की शक्ति दे सकती है।
सी.आर.पी.सी. की धारा 144 के तहत अपराध प्रकृति में आपराधिक, संज्ञेय और जमानती होता है।
सी.आर.पी.सी. की धारा 144 को लागू करना वैध है जब इसका उपयोग परेशानी, मानव जीवन को चोट पहुंचाने और सार्वजनिक शांति में अशांति को प्रतिबंधित करने के लिए किया जा रहा है। इस धारा के तहत आदेश एक पक्ष को दूसरे पक्ष को लाभ पहुंचाने के लिए नहीं लगाया जाना चाहिए।
इस धारा के साथ कुछ मुद्दे यह भी हैं कि यह अत्यधिक व्यापक, अस्पष्ट है, और इसका दुरुपयोग भी किया जा सकता है। इसके अलावा, राहत मिलने की प्रक्रिया बेहद धीमी है। इसके अतिरिक्त, एक बहुत बड़े क्षेत्र में निषेधाज्ञा लागू करना अनुचित है।